Monday, 6 July 2009

बहुत दिनों पर दोबारा अपने ब्लाग पर लिखने का मौका मिल रहा है... क्या कहूं इसे काहिली या सुस्ती ही कह कर पीछा छुड़ा सकता हूं... कई बार बहुत से मुद्दों पर लिखने के लिए जी मचल गया लेकिन वक्त की तंगी की वजह से लिख नहीं सका... लेकिन खैर आज से फिर शुरुआत हो गई...

आज पेश है मेरे एक मित्र की कविता... मेरे ये दोस्त है मेरी संस्था में काम करने वाले कार्टूनिस्ट जनाब राजकुमार पुनिया साहब हैं... पुनिया साहब जितने सिद्धस्त कार्टून बनाने में हैं उससे कहीं ज्यादा तेजी से वो कविताएं भी रचते हैं... लिब्रहान कमीशन की 17 साल बाद पेश की गई रिपोर्ट पर मचे राजनैतिक बवाल को उन्होंने जैसा महसूस किया उसे जब लफ्जों में उतारा तो एक कविता बन गई। पेश है उनकी कविता....
बहती है नदियां रक्त की, वो देश भारत है,
जहां टूटे भवन-मंदिर टूटी इमारत है।
अपने धर्म के रक्षक सभी है, खून के प्यासे,
लिए तलवार निकले सैकडों, रौंदते सांसे।
अरे धिक्कार है उस खून पर, जो खून की खातिर,
कटारी घोंप कर करते अलग, एक बेटे को मां से।
लड़ाकर के जहां दो भाईयों को करते शरारत हैं,
वहीं टूटे भवन-मंदिर टूटी इमारत है।
जो होते ही रहे यदि खून, अपनों को बुझाकर के,
हर एक परिवार-मजहब-देश को शमशां बनाकर के।
जो मंदिर-मस्जिदों पर लड़ रहे, ये देश के दुश्मन,
तसल्ली मिल सकेगी, क्या इन्हें खण्डहर बनाकर के।
तबाह कर देश को, खण्डहर बना लाते कयामत हैं,
उन्हीं गद्दारों की दुनियां, यही एक देश भारत है।
कुरान और बाईबल में क्या ये लिखा है फूंक दो घऱ को?
क्या गीता में लिखा तलवार लेकर काट दो सर को?
क्या ये मजहब-धर्म-ईमान, लड़ना ही सिखाते हैं?
क्या ये कहते हैं लूटो देश को, और खोखला कर दो?
लिखा न इनमें ऐस, इनका तो एक अर्थ मोहब्बत है,
बहती थी नदियां दूध की, यही देश भारत है।
ये अपने ही भवन-मंदिर हैं, ये अपनी ही इमारत है,
ये अपने ही भवन-मंदिर है, ये अपनी ही इमारत है....

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