Thursday, 20 September 2007

राम के नाम पर


एक बार फिर मुल्क कि फिजा खराब कि जा रही है। ये सब हो रहा है, एक पुल के नाम पर। सेतु समुन्द्रम प्रोजेक्ट से सम्बंधित एक मुकदमे मे केंद्र सरकार जो हलफनामा दिया, वही इस रगडे कि वजह बन गया है। अपने हलफनामे मे ASI ने राम सेतु के अस्तित्व को तो नकारा ही साथ ही "राम जी" के अस्तित्व पर भी सवाल खड़ा कर दिया।
- राम हों या मोहम्मद, ईसा मसीह हों या कृष्ण किसी वैज्ञानिक प्रमाण के मोहताज नहीं है। ये लोगों की भावनाओं, उनकी आस्थाओं का प्रतीक हैं।
- दरअसल केंद्र सरकार का ये हलफनामा परमाणु मुद्दे से आम लोगो को दूर करने और अपने वामपंथी साथियों कि अकड़ को कम करने के लिए इस्तेमाल किया गया लगता है। वामपंथी इस हो हल्ले मे अपनी बात नही कह सकते, और यही केंद्र सरकार चाहती है।
- जहा तक BJP का सवाल है तो उनके लिए तो "बिल्ली के भाग्य से छिका टुटा" है। UP कि हार से बिखरती इस रामलीला मंडली को नया ऑक्सिजन मिल गया।
- राम के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। आस्था के प्रश्न उठाने और उसे सतही ढंग से झुठलाने की सारी प्रक्रिया बार-बार इसीलिए दोहराई जा रही है क्योंकि मुद्दों पर परिपक्व तरीक़े से बहस करने की राजनीतिक परंपरा अभी तक ठीक से स्थापित नहीं हो सकी है। सरकार ही नहीं, सभी राजनीतिक दलों को यह समझदारी दिखानी चाहिए और बहसों को हमेशा मुद्दों पर केंद्रित रखना चाहिए, राजनीति के अखाड़े में धर्म पर बहस, मंदिरों-मस्जिदों में राजनीतिक बहस हमेशा से जटिलता पैदा करते रहे हैं.

Wednesday, 19 September 2007

आओ खेले राम राम


हां तो भाई राम जी एक फिर ख़तरे मे है। एक बार 'बाबर' ने पंगा ले लिया था। वो तो हमारे भगवा भाई बंधु लोग थे जो बाबर कि निशानी पर चढ़ कर उसे उसकी औकात बता दी। अब एक बार फिर राम जी को खतरा है। न, न इस बार कोई "बाहरी आक्रमणकारी" नही है, बल्कि हिंदुस्तान का एक ख़ानदानी सपूत कह रहा है कि" कौन है ये राम?"
- अब उसे कौन बताये कि ये अयोध्या वाले राम जी है। जो मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाते है। अरे वही जिनके नाम पर, हां सिर्फ नाम पर, भगवा झंडे वालो ने हजारो देशद्रोहियों को उनकी औकात बतायी थी।
- राम के नाम पर ठेकेदारी करने वाले ये वही लोग है जिन्होंने कभी राम के नाम पर वोट लूट कर सरकार बनायीं थी, और सरकारी मलाई मिलते ही ये राम को भूल गए है। ये भूल गए कि इन्होने एक बार नारा दिया था कि" मंदिर वही बनायेंगे"।
- ये फिर दुबारा राम को बचाने का ठेका ले रहे है। एक बार फिर इन्हें दिल्ली फतह करने कि उम्मीद दिखायी देने लगी है। पर शायद इन्हें ये याद नही कि " काठ कि हांडी बार बार नही चढती"।

Thursday, 6 September 2007

जय थानेश्वर

लाल टोपी वाले जनता के सामने तो अकड़ के रहते है लेकिन भगवान् के आगे दंडवत होना उनकी मज़बूरी है। हो भी क्यो ना, आख़िर स्वर्ग किसे नही चाहिऐ। दिन भर नेताओ, गुंडों, ठेकेदारों और अपने आला अफसरों कि नाजायज खवाहिशो को पुरा करते और जनता कि पुकार को अनसुना कर अपनी जेब भरते मासूम पुलिस वाले आख़िर भगवान् कि शरण मे न जाये तो कहा जाये।
- बुधवार को सुबह NDTV पर आ रहे विशेष मे थानों और दफ्तरों मे इश्वर के रहने पर सवाल उठाया गया। कहा जाता है कि ईश्वर सर्वव्यापी है। अब हर जगह है तो थानों और दफ्तरों मे रहने से लोगो को क्यो तकलीफ हो रही है। इसी प्रोग्राम मे रविश कुमार ने "Newsroom" से टिपण्णी कि, की थानों और दफ्तरों मे भगवान् का राजनितिक, आर्थिक और सामाजिक पहलू है। दफ्तरों मे आने वाले "नजराने" को भगवान् पर चढा कर उसे काले से सफेद करने का इससे अच्छा तरीका और क्या हो सकता है। इसके अलावा हर मंदिर पर एक आदमी का रोजगार फिट हो जाता है। जाहिर है मंदिर होगा तो, भक्त आएंगे, भक्त आएंगे तो प्रसाद और धुप बिकेगी, मिला ना दर्जनों को रोजगार। इन मंदिरों का सबसे बड़ा फायेदा राजनितिक है। 1990 के बाद जब "राम लीला मंडळी" ने (इसे भाजपा पढे) "जय राम जी कि" को "जय श्री राम" मे बदल डाला था प्रशासन का "सम्प्रदायिकरण" शुरू हो गया था। मुद्दों कि जगह "राम नाम" को वोट मांगने कि वजह बनाने के बाद थानों और दफ्तरों मे मंदिर बनाने का सिलसिला तेज हो गया।
- यु भी जिस देश मे स्कूलों कि संख्या 2 लाख और मंदिरों कि संख्या 6 लाख हो वहा धार्मिक स्थानो कि थोड़ी और बढ़ जाये तो फर्क नही पड़ता। बहुत दिन हुए जब "जनसत्ता" मे मे "सुभाष गताडे" का एक लेख आया था इसमे सुभाष जी ने जबलपुर और मदुरई का उदाहरण देकर ये समझाया था कि कैसे आम जनता और नगर प्रशासन के तालमेल के बाद दोनो शहरो मे सैकडो अवैध मंदिरों, दरगाहों और पूजा स्थलों को तोड़ा गया था। सारे हिंदुस्तान मे प्रयास तो ऐसे ही होने चाहिऐ, और हो भी रहे है।
- दुसरी जगह का तो कह नही सकता लेकिन मेरे शहर "मुज़फ़्फ़रपुर" का एक वाकया आपके पेशे नजर है। "सादपुरा" जहा मेरा घर है, से "जिला स्कूल" जाते हुए "MDDM" कालेज के सामने एक पीपल का पेड हुआ करता था। 1995 तक वहा दो एक गोल पत्थरों के सिवा और कुछ नही था, एकाएक एक त्यौहार आया, मंदिर के नाम पर कारसेवा हुई और आज वहा सड़क को संकरा किये हुए एक भव्य पूजा स्थल है। अब ऐसे मे सुधार कि क्या गुंजाईश है, आप ही बताये?

Wednesday, 5 September 2007

'फ़र्ज़ी इंटरव्यू'

पॉयनियर और 'स्वतंत्र भारत' ने अक्तूबर 1994 में अपने एक 'फ़र्ज़ी इंटरव्यू' मे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अनंत कुमार सिंह जो तब मुज़फ़्फ़रनगर के ज़िलाधिकारी थे पर ये आरोप लगाया था कि वो महिलाओ के प्रति नकारात्मक सोच रखते है। इस मामले मे लखनऊ के चीफ़ जुडिशियल मजिस्ट्रेट ने दस साल तक चले मुक़दमे के बाद सोमवार को पॉयनियर अख़बार के तत्कालीन रिपोर्टर रमन कृपाल को एक वर्ष सश्रम कारावास और 5500 रुपए जुर्माना भरने की सज़ा सुनाई।
- ये मामला पत्रकारों के सामने एक नजीर पेश करता है। हालांकि इस मामले मे संवाददाता के साथ साथ पॉयनियर के तत्कालीन संपादक अजित भट्टाचार्य, 'स्वतंत्र भारत' के तत्कालीन संपादक घनश्याम पंकज और प्रिंटर-प्रकाशक संजीव कंवर और दीपक मुखर्जी को भी छह-छह महीने की जेल की सज़ा सुनाई गई है। संवाददाताओ के साथ साथ "Boss" को मिली सजा उन सरफिरे संपादकों और मालिकों को एक सीख है जो अपनी TRP और बिक्री के लिए रिपोर्टर का शोषण करने से नही चूकते।