Friday, 7 December 2007

नरसंहार

मोदी के पास सोहराबुद्दीन, मिया मुशर्रफ़, आतंकवाद, मदरसे, -------------और न जाने इन जैसे कितने? मुद्दे है, ये तो शायद उन्हें भी नही मालूम, क्योकि किसी भी मुद्दे और घटना को कैसे और कब सांप्रदायिक मोड़ देना है ये उसके होने के बाद वो सोचते होंगे।
- अभी ज्यादा दिन नही हुए जब "तहलका" ने गुजरात दंगो मे बजरंगियो कि वीरगाथा उन्ही कि जुबानी सुनाई और दिखाई थी। इससे ये तो साबित हो ही गया कि गुजरात का नरसंहार सुनियोजित था, " क्रिया कि प्रतिक्रिया" नही था। और इसे गुजरात मे संविधान कि शपथ लेकर शासन करने वालो ने सक्रियता के साथ बढाया, प्रोत्साहित किया और संरक्षण दिया। मोदी और उनकी पिशाच पलटन के अलावा विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, Rss , और भारतीय जनता पार्टी कि इनसब मे सोची समझी साजिश थी।
- इस कुकर्म पर पश्चाताप तो दूर, इसमे शामिल लोग वीरगाथा कि तरह उसका बयान करते है। प्रशासन तंत्र, पुलिस, और इसे रोक सकने कि जिम्मेदारी रखने वाले सब लोग या तो इस संहार मे शामिल थे या उसके उसके "मूक दर्शक"।
- केन्द्र मे नए गठबंधन कि सरकार आने के बाद कई लोग मोदी सरकार कि बर्खास्तगी कि उम्मीद लगाए थे। लेकिन धर्मनिरपेक्षता को अपनी विजय का मुख्य आधार बताने वाली केन्द्र सरकार इस दंगे को लेकर कुछ नही कर पायी। २००२ मे हुए नरसंहार के बाद स्वतंत्र भारत के इतिहास मे सबसे बड़ा हत्यारा राजनेता फिर से चुना गया और वर्त्तमान मे जो हालत है, ऐसे मे वो फिर निष्कंटक चुन गया तो ये लोकतंत्र के माथे पर एक धब्बा होगा।
---बहुत से लोग तर्क(कु) देंगे कि अगर जनता हत्यारे को चुनती है तो उसका जनादेश सिर माथे पर रखना होगा, भले ही उस हत्यारे पर कितनों का खून क्यो न लगा हो। हिटलर भी, जनतांत्रिक तरह से ही हत्यारा तानाशाह बना था।
- कुछ लोग इसे बहुसंख्यक समुदाय कि नाराजगी का डर बताते है, जिससे डर कर केन्द्र इसे हटा नही पा रही है। लेकिन ये कोरी बकवास है। सबसे पहले तो ये हिन्दू समाज कि परम्परा, इतिहास और आत्मबोध का अपमान है, कि उसे हत्यारी राजनीती का पोषक बताया जाये। आख़िर भारत मे जो धरमनिर्पेक्षता है उसका मूलाधार हिन्दू समाज कि अपनी बहुलता और सहिष्णुता ही है।
- सांप्रदायिक राजनीति करने वाले और उसे अपने लाभ के लिए प्रोत्साहित करने वाले सब लोगो को हारना ही होगा। आज नही तो कल ये होकर रहेगा।

Saturday, 1 December 2007

राम शिला या एक और चुनावी मुद्दा

आज ऑफिस आते वक़्त एक तथाकथित राष्ट्रवादी पार्टी का प्रचार रथ( जीप) पीछे से शोर मचाते बगल से निकला। इस रथ पर एक शीशे के एक्वेरियम मे कुछ तैर रहा था। कुछ आगे जाकर ये रथ एक नुक्कड़ पर रूक गया। कौतुहलवश मैने भी अपनी मोटरसाईकिल उस तरफ मोड़ दी।
- राम धुन के भजन के साथ उस पार्टी के कारसेवको ने उस पत्थर को सब लोगो को राम शिला कह कर, पूजा करने कि सलाह दी। मैंने उस पत्थर को हाथ से स्पर्श करने का अनुरोध किया।
- वो पत्थर, पत्थर न होकर मूंगे कि चट्टान थी। हालांकि इस बात को वहा "सेवको " को बताना अपनी सेवा करवाने जैसा था, इसलिए चुपचाप रामजी कि मूर्ति को प्रणाम कर, मै वापस अपनी राह पर चल पड़ा।
- राम सेतु भारतीय जनमानस के मन मे सदियों से रचा बसा है। इस लिए कार सेवको कि वो चट्टान, पत्थर नही है तो , इससे राम सेतु को कोई फर्क नही पड़ता। राम सेतु रामायण मे वर्णित है तो ये हमारे लिए पूज्य है।
- लेकिन इस पवित्र सेतु को मुद्दा बना कोई पार्टी अपना उल्लू सीधा करे तो ये सरासर गलत है।
- हमारे देश के कुछ दल इसी तरह के भावनात्मक मुद्दों के जरिये चुनाव जीतना अपना शगल बना चुके है। ये हरकत न सिर्फ देश के लोकतंत्र के साथ मजाक है, बल्कि ये हम हिन्दुस्तानियों कि भावनाओ के साथ भी भद्दा मजाक है।