Wednesday, 29 August 2007

ज्यादती या मनोरंजन


मंगलवार को भागलपुर मे एक चोर के पकड़े जाने और उस बाद जो ड्रामा हुआ और सहरसा के DM द्वारा बिहार के CM को पहचानने से इनकार किया जाना, बिहार मे प्रशानिक तंत्र कि कि आम लोगो से विमुखता का जीता जागता प्रमाण है। नितीश कुमार को शायद पता तो होगा ही लेकिन उन्हें पहली बार इस बात का इल्हाम हुआ होगा कि उनके अधिकारी कितने असंवेदनशील है। जब एक जिलाधिकारी, मुख्यमंत्री से सीधे मुह बात नही करता, तो वो बाढ़ से घिरे लोगो से किस क़दर पेश आता होगा ये बात शायद किसी से छुपी नही है। ऐसे भी बाढ़ आने के बाद राहत कार्य करवाने मे DM बहुत मसरूफ रहते है। यही वो मौका होता है जब एक DM लाखो रुपए "जरूरतमंद" लोगो तक पहुचाता है। ऐसे मे CM ने उसे फ़ोन करके परेशान ही किया है।

- भागलपुर मे पुलिस कि मौजूदगी मे जो कुछ हुआ, कम से कम वो सब भागलपुर पुलिस के लिये नया नही है। ऐसा ही कुछ इनलोगों ने " अख् फोरवा काण्ड" के दौरान किया था।

- इस लिये भाई लोग पुलिस और DM साहब से बच कर। इन्हें आप "Public Servant" नही समझे। ये लाट साहब है। ये जो चाहे कर सकते है।

- एक और बात जो भागलपुर काण्ड के दौरान दिखायी देती है वो ये कि आम लोगो ने कैमरा देख कर कुछ ज्यादा ही मर्दानगी दिखा दी। और इन सब को कैमरे के जरिये शूट किया जाता रहा।

Sunday, 26 August 2007

यौमे आजादी कि परेशानिया - 2

सीन 1 -
10 अगस्त को busstand पर उतरने के बाद लगा कि शायद अँधेरे मे अपने stand से आगे या पिछे उतर गया हु। हरदम गुलजार रहने वाली जगह पर शमशान जैसे खामोशी थी। रात को वैसे तो इस इलाके मे लौटती गाडियों कि भीड़ लगी रहती है। लेकिन आज सवारिया भी कम थी। दरअसल यहा कभी सब्जी मंडी हुआ करती थी। शाम के वक्त यहा लोगो कि भरी भीड़ होती थी। सब्जी बेचते लोग, किस्म किस्म कि आवाजे निकालते थे। इन सब्जी वालो से इनकी सब्जियों कि कीमत को लेकर जिरह करती औरते । पुरे इलाके मे एक अजब किस्म का शोर होता था। ये शोर कही से भी परेशान करने वाला नही होता था। लेकिन अब यहा नीम खामोशी पसरी रहती है।
15 अगस्त आकर चला गया। सोचा था कि शायद इन्हें यौमे आजादी तक के लिए हटाया गया है। स्वतंत्रता दिवस के बाद सब्जी बेचने वाले फिर वापस आ जायेंगे। लेकिन इस ब्लॉग को लिखते वक़्त तक वो जगह वीरान ही पडी है।
सीन 2 -
११ अगस्त से १७ अगस्त तक करीब २५ हजार कि आबादी के लिए सब्जी और खाने पीने कि दुसरी चीजो कि जबर्दस्त किल्लत हो गई थी। १८ अगस्त को कुछ सब्जी वालो ने निचली गली मे अपना ठेला लगाया। जाहिर है, पहले जिन लोगो को सब्जी लेने दूर जाना पड़ रह था, उनके लिए ये ठेले बड़ी राहत का बायस थे। लेकिन ये आराम ज्यादा दिन का नही था। २० अगस्त को लोकल थाने के सिपाहियों ने बिल्कुल गुंडों कि तरह सब्जी बेचने वालो पर हमला किया, कई सब्जीफरोश घायल हो गए। अगले दो तीन दिन तक वहा कोई सब्जी वाला नजर नही आया।

सीन 3 -
- दिन २२ अगस्त
निचली सड़क कि गली नंबर २३ के मुह पर भरी भीड़ थी। लोग किसी दुकान मे घुसने के लिए मारा मारी कर रहे थे। जो नही घुस सके थे, वो दुकान के बाहर रखी "Aquaphina" का पानी पी कर, फिर अन्दर जाने कि कोशिश कर रहे थे। दरअसल निचली सडक कि उस गली के बाहर "6 Ten" का स्टोर खुल गया था। इस स्टोर मे सब्जी बेचने कि दुकान खुली थी।
----यानी १५ अगस्त के नाम पर सब्जी फरोशो को बेरोजगार कर, पिछले दरवाजे से स्टोर को बुलावा भेजा गया था। करीब २०० सब्जी फरोशो कि कीमत पर "6 Ten" को यहा सेट किया गया। यानी १५ अगस्त को एक अंग्रेजी हुकूमत की वापसी कि खुशिया तो मनाई गई। वही यहा एक और " कम्पनी" वापस आ गई।

Saturday, 25 August 2007

यौमे आजादी कि परेशानिया - १

15 अगस्त आया, 15 अगस्त आया, और आकर चला गया। पर इस बार इसने बहुत परेशान कर दिया। तिरंगा लहराने के पहले " परिंदा भी पर नही मार सके" जैसा सुरक्षा इंतजाम था। 10 अगस्त कि रात को मकान मालिक के साथ पुलिस का एक सिपाही हमारी "पहचान" करने आया। " पहचान " यानी हमारी "वफादारी"। मेडिकल के तलबा मेरे छोटे भाई को यह सब पिछले 3 साल से करना पड़ रहा था। मेरे लिये ये पहली बार था कि, मैं हिन्दुस्तानी ही हु, इसका सबूत देना पड़ा।
- कहा घर है?
- बिहार से हु।
- बिहार मे कहा ? बंगाल के पास के किसी ज़िले से?
- नही, मुज़फ़्फ़रपुर से।
- दिल्ली मे कब से हो?
- दुसरा साल है।
- क्या करते हो?
- पत्रकार हु।
-----इस जवाब के बाद सिपाही नरम पड़ गया। उसने एक फॉर्म भरवाया। फॉर्म पर तस्वीर चिपकवाई। परमानेंट और लोकल पता लिखवाया, और चला गया। हां, हमारे फ़्लैट के बाजु मे रह रहे उन लोगो से कोई फॉर्म नही भरवाया गया जो मुसलमान नही थे।
- हालांकि हमारे पडोसी जुलाई के आख़िर मे आये थे। अब ये मान भी लिया जाये कि ये सब सुरक्षा के लिये किया जा रहा था, तो फिर उन नए लड़को कि पड़ताल करने कि जरूरत क्यो नही महसूस कि गयी।
- आस पास के कई नए लड़को-? से बात करने पर पता चला कि, उनलोगों से पैसे भी वसूले गए। ये सब पुख्ता सुरक्षा इंतजाम के लिए किया जा रहा था, या उनके दिल और दिमाग मे कुछ और था, इसका कुछ तो अंदाजा मुझे महसूस हुआ, क्या आपको को भी ऐसा लगा?

Tuesday, 21 August 2007

माया कि माया

रोमा पर रासुका के तहत मामला बना था, लेकिन माया सरकार ने २ दिन पहले रोमा पर लगे सारे आरोप वापस ले लिए और उन पुलिस वालो पर कारवाई करने का आदेश दिया है जिन्होंने भूमाफिया के शह पर रोमा पर झूठा मामला बनाया था।
अपने ही एक लोकसभा सांसद कि गिरफ़्तारी के बाद रोमा कि रिहाई का आदेश ये बताता है कि मुख्यमंत्री जनदबाव का अर्थ समझती है। दरअसल आदिवासियो कि आवाज बन कर इनकी जमीन भूमाफिया से वापस लेना रोमा कि गलती थी। कैमूर के इलाके मे अपराधी-नेता- पुलिस का ऐसा नापाक गठबंधन बन चूका है जिसमे आम लोग और भोले भाले आदिवासी पिस रहे है। मेधा पाटेकर और दुसरे जन संगठनों के लोगो से मिलने के बाद 19 तारीख को मायावती ने रोमा के रिहाई के आदेश दिए। " जो जमीन सरकारी है , वो जमीन हमारी है।" रोमा ने मायावती के ही दिए, नारे को अपनाया और आदिवासियो के हक के लिए काम करना शुरू किया।
- रोमा कि रिहाई दरअसल छत्तीसगढ़ सरकार के लिये एक सीख है। वहा कुछ दिन पहले Dr. विनायक सैन को विभिन्न कानूनी धारा के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया गया है। उन पर नक्सल गतिविधियों मे शामिल होने और उन्हें मदद देने का आरोप लगाया गया है।
- रमण सिंह सरकार को रोमा के मामले से सीख लेकर Dr विनायक सैन को आरोप मुक्त कर देना चाहिऐ।

Tuesday, 14 August 2007

तस्लीमा पर हमला

कुछ मसरूफ था इस लिए ब्लॉग नही लिख सका। ज्यादा दिन नही हुए जब बंगलादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन पर हैदराबाद मे हमला हुआ। ये हमला उन कमजोर लोगो ने किया है जिनके पास तस्लीमा कि बातो को काटने का और कोई हथियार नही है। तस्लीमा ने जो कुछ भी लिखा हो, वो गलत है या सही इस पर अभी बात नही करनी है। लेकिन तस्लीमा पर हुआ हमला ठीक वैसा ही है जैसा बजरंगी या शिव सैनिक मकबूल फ़िदा पर करते है या सयाजी विश्वविद्यालय मे।
- सभ्य समाज को ऐसी हरकतों का पुरजोर एह्तेजाज करना चाहिऐ। हम अपनी संस्कृति और धर्म के मामलो मे उन ठेकेदारों को कतई बर्दाश्त नही कर सकते जो धर्म और संस्कृति के बारे मे रत्ती भर भी नही जानते।

Tuesday, 7 August 2007

बस्तर का बलात्कार...

मेरी न्यूज़ एजेंसी मे भी ये खबर आई थी, लेकिन इसे नही दिखलाने का हुक्म मिला। " छत्तीसगढ़ से सम्बंधित एक वेबसाइट पर इससे सम्बंधित एक खबर को अपने ब्लॉग पर डाल रहा हु।
- ये कालम विकल्प ब्यौहार जी का है।
- अब मन बहुत दुखी है। राष्ट्रीय महिला संगठन की एक रिपोर्ट का हिंदी अनुवाद करते हाथ- पैर कांपने लगे थे। क्या एक इनसान इस हद तक गिर सकता है? हमारी आदिवासी मां-बहनों के साथ ऐसा सुलूक ! वह भी हमारी चुनी सरकार के पूरे संरक्षण में। नहीं! ऐसा नहीं होना चाहिए। यह तो घोर पाप है। रावण के राज्य में भी महिलाओं के साथ ऐसा नहीं होता होगा।
एक 10 साल की बच्ची के साथ नगा बटालियन के जवान एक सप्ताह तक सामूहिक बलात्कार करते रहे और उसकी रिपोर्ट तक दर्ज नहीं कराई गई। उसके टुकडे-टुकडे कर फेंक दिया, जालिमों ने और हम... ऐसी चुप्पी आखिर कब तक ? कोई जल्द ही आपके और मेरे घर दस्तक देने आता होगा।
दंतेवाड़ा जिले में बड़ी संख्या में आदिवासी महिलाओं जो वास्तव में छत्तीसगढ़ महतारी हैं, के साथ जो सुलूक किया जा रहा है, उसका परिणाम आने वाले समय में ठीक नहीं होगा। नक्सलियों से लड़ने के लिए स्थानीय पुलिस की नपुंसकता के कारण ही राज्य सरकार को नगालैंड और मिजोरम से जवानों को 'आयात' करना पड़ा है।
पहले तो सिर्फ नक्सली ही आदिवासियों का पेट फाड़ा करते थे अब ये नगा के जवान बुला लिए गए हैं, ताकि वे वहां की गर्भवती महिलाओं का पेट चीर कर भ्रूण निकाल सके। इससे सरकार को दो-दो फायदे जो हैं, एक यह कि आगे फिर कोई नक्सली बनने वाला नहीं बचेगा और दूसरा यह कि कोई बिरसा- मुंडा पैदा नहीं होगा।
रायपुर में ही मिजोरम के जवानों ने अपनी औकात दिखा दी। यह समाचार दबी कलम छप ही गया कि किस तरह मिजो जवानों ने अपने एक दिन के माना कैंप में शराब और लड़कियों की मांग की थी। कुछ स्थानीय महिलाओं ने इसकी शिकायत वहीं के अधिकारियों से की थी। कुछ समय के लिए राजधानी के पास ही मिजो जवानों का आतंक छा गया था। इतना ही नहीं उन जवानों ने माना के कुछ दुकानदारों से फोकट में खाने का सामान भी मांगा था। यह था प्रदेश में मिजो जवानों का पहला कदम।
अब हमारी सरकार का जवाबी कदम पढिए। इसकी शिकायत होने पर अधिकारियों ने कहा कि कल ही उन्हें बस्तर रवाना कर दिया जाएगा। वाह री मेरी सरकार!! मान गए। अब मिजो जवानों को अपनी वासना की पूर्ति के लिए रायपुर की लड़कियों को मांगने की जरूरत नहीं पड़ेगी। अब तो उन्हें बस्तर की दर्जनों आदिवासी लड़कियां मिल जाएंगी, वह भी बिना किसी विरोध के। उनके लिए शिविरों में पहले से ही पूरी व्यवस्था जो कर ली है आपने।
हमारी बहनों को छोड़ दो सरकार!! रायपुर के किसी बड़े घराने में पैदा नहीं होने की इतनी बड़ी सजा मत दो उन्हें।
यह बात तो पता थी कि वहां कुछ लड़कियां भी विशेष पुलिस अधिकारी बनी हैं। अब तक जो जानकारी मिलती रही उसके मुताबिक वही लड़कियां एसपीओ बन रहीं हैं जो नक्सलियों के हाथों अपने परिजनों को खो चुकी हैं। पहले यह सुनकर बड़ा गर्व होता था कि चलो छत्तीसगढ़ की हमारी बेटियां इतनी बहादुर तो हैं, कि अपने दुश्मनों के खिलाफ बंदूक भी उठा सकती हैं। लेकिन यदि रिपोर्ट की मानें तो यह सारी बातें कोरी बकवास ही निकलीं।
जिन परिस्थितियों में एक 18 साल से कम उम्र की लड़की एसपीओ बनी उसकी कहानी बताने की जरूरत नहीं। लेकिन एसपीओ बनी लड़कियों का क्या हाल कर रखा है, सोच कर शरीर कांप जाता है।
दंतेवाड़ा जिला पूरी तरह से नक्सल प्रभावित है और वहां थानों में यदा कदा नक्सलियों के हमले होते रहते हैं। राज्य पुलिस व सी.आर.पी.एफ. के जवान हमले के समय तो थाने में घुस जाते हैं और अपने हाथ में बंदूक लिए ये बच्चियां व बच्चे एस.पी.ओ. का बैज लगाए उनसे मोर्चा लेते हैं। यदि किस्मत से कोई नक्सली मार दिया जाता है, चाहे गश्त में भी, जहां यही स्थानीय एस.पी.ओ. सामने रहते हैं, तो फिर इनके जारी समाचार होते हैं- फलां आई.जी के निर्देशन में, एस.पी. की अगुवाई में हमारे जांबाज जावानों ने एक नक्सली को मार गिराया। फलां-फलां समान जब्त किया गया, इतने राउंड गोली चली और जवानों की लंबी-चौड़ी तारीफ के बाद अंत में एक लाइन भी जोड़ दी जाती है कि, इस मुठभेड़ में एक एसपीओ भी शहीद हो गया, जिसे सलामी दी गई।
एर्राबोर की घटना की जांच अब तक हो रही है। उसी का उदाहरण लें तो इस घटना ने यह जग जाहिर कर दिया कि पुलिस नाकाम है, और सफाई देने के सिवा कुछ कर भी नहीं सकती। सरकार ने शेरों से लड़ने बिल्लियों का सहारा लिया जो बेकार साबित हुए, तभी तो नगा और मिजो जवान बुलाए गए हैं। दो चक्की के बीच फंसी हमारी बस्तर की मां-बहनों की चिंता किसी को नहीं है।
चक्की चल रही है और खून की धारा बह रही है, और हम यह देख रहे हैं कि इस खून की उम्र कितनी है। आंख में पट्टी बांधकर नेत्रहीनों का दर्द महसूस करने वाले हमारे मुखिया क्या कभी बस्तर जाकर उन निरीह आदिवासी महिलाओं का दर्द उन्हीं की तरह महसूस कर पाएंगे।
सरकार का दावा है कि शिविरों में सब कुछ बहुत बढिय़ा हो रहा है। तो भाई जंगल में मोर नाचा किसने देखा? हमारे कुछ साथी पत्रकार बताते हैं कि मीडिया को साम, दाम, दंड और भेद की नीति अपनाते हुए चुप कर दिया गया है। एक भी समाचार सलवा जुड़ूम के खिलाफ छपी तो फिर समझ लीजिए कि आपकी 'पत्रकारिता' तो गई तेल लेने। या तो आपको इलाका छोड़ना पड़ेगा या तो फिर कलम। कुछ दिलेर कलम नहीं छोड़ते तो फिर उनके एनकाउंटर की पूरी आशंका बनी रहती है।
यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि पुलिस के अत्याचार और सलवा-जुड़ूम के खिलाफ लिखने वालों को नक्सलियों का साथी घोषित कर देना कोई अच्छी बात नहीं है। छत्तीसगढ़ के कुछ अखबारों ने पुलिसिया अत्याचार के बीच चक्की के दूसरे पाटे को भी जनता के सामने लाया है। नक्सलियों द्वारा की गई हत्याएं और उनका आदिवासी विरोध, नक्सलियों की बर्बरता भी उतनी ही संजीदगी के साथ छापी जाती हैं। लेकिन अब करें क्या गलत कामों में हमें नक्सलियों का पलड़ा कुछ हल्का ही मिलता रहा है।
पुलिस की शहर में क्या इज़्जत है, वह तो सभी देखते ही रहते हैं। हर वह बच्चा जो होश संभालने लगता है, यह सुनने लग जाता है कि रुपए के लिए चालान किए जाते हैं और रुपए के लिए पुलिस अपने एरिया की दुकानों से हफ्ता वसूलती है।
राष्ट्रीय महिला संगठनों की रिपोर्ट में एक और चौकाने वाली बात सामने आई कि वहां के शिविरों में कुछ ऐसी आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं जो जबरिया वहां रखी गईं हैं। ये बच्चों को पढ़ाती हैं। शिक्षिका हैं। डरी-सहमी सी शिक्षिकाएं जिनका बुझा चेहरा और डर से कांपते हाथ बस्तर की नई पीढ़ी गढ़ रहे हैं। शिविरों में विधवाओं की एक बड़ी संख्या है, जिनकी सुरक्षा करने वाला वहां कोई नहीं। जो सुरक्ष करने वाले हैं उनके बारे में खबर मिलती है कि वे उनकी ही इज़्जत से खेल रहे हैं। उन्हें घर नहीं जाने दिया जाता।
अब सरकार का एक बेहतरीन तर्क पढिए- 'नक्सलियों से ग्रामीणों की सुरक्शा के लिए उन्हें मुख्य मार्गों के किनारे शिविर बनाकर रखा जा रहा है।' उधर मुट्ठीभर नक्सली और इधर बटालियन पर बटालियन फिर् भी सुरक्षा के लिए एक जगह जानवरों की तरह ठूंस देना हास्यास्पद है। गांव खाली क्यों कराते हो, गांव को आबाद रखो और लड़ो नक्सलियों से! कल रायपुर में नक्सलियों की वारदातें शुरू हो जाएंगी तो क्या यहां से दूर एक कैंप बनाकर सबको रख दोगे?
अरे सरकार! कुछ तो रहम करो। कम से कम हमारी मां-बहनों को तो छोड़ दो। आप नक्सलियों से लड़ो, हमारा पूरा समर्थन आपको है, लेकिन बस्तर का बलात्कार तो मत करो। ऐसे में हमारा साथ नहीं मिलने वाला। नगा और मिजो जवानों को नियंत्रण में रखो। नक्सलियों के खिलाफ लड़ने के लिए एक सकारातमक माहौल बनाओ। वहां की विषमताओं को दूर करो। वहां की मां-बहनों की इज़्जत करो। अपनी पुलिस को विश्वसनीय तो बनाओ, फिर देखो कैसे खत्म होता है नक्सलवाद। इसके लिए किसी बाहरी पुलिस अधिकारी की जरूरत नहीं। अपनों में भी बहुत दम है, यदि उन्हें तैयार कर सको तो। ( With thanks from www.itwariakhbar.com )

Sunday, 5 August 2007

अनुदान का खेल

पटना मे जॉब करते हुए मुझे एक बन्दे से मिलने का मौका मिला। जनाब कहने को तो एक NGO चलाते थे, लेकिन उनका असल धंधा अनुदान हासिल कर उसकी मलाई खाना था। खैर ऐसे बन्दे बहुत से है जिनके बारे मे बाद मे बात होगी। अभी अनुदान से सम्बंधित एक बात।
- हमारे देश मे अनुदान हासिल करने के कुछ नियम काएदे बने है। विदेशी अनुदान किस व्यक्ति या संस्था को लेने कि इजाजत होगी, इसके लिए 1976 का "विदेशी अनुदान (नियमन ) कानून" मौजूद है। इसी कानून के तहत " centre for equity studis" नाम कि एक संस्था ने कुछ साल पहले विदेशी अनुदान के लिये आवेदन दिया था। लेकिन इस संस्था के आवेदन को ये कह कर खारिज कर दिया गया कि " यह संगठन राजनितिक गतिविधियों मे संलिप्त है।" आपकी जानकारी के लिये ये बता दे कि इस संस्था के निदेशक "हर्ष मंदर " साहब है। दुबारा आवेदन करने और काफी इंतजार करने के बाद जब "मंदर साहब" ने सरकार से ये जानना चाहा कि राजनितिक गतिविधियों का क्या मतलब है तो, कहा गया कि " उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के कारणों कि वजह से ये नही बताया जा सकता। "
- 2004 मे ऊपर लिया गया फैसला 1976 के "विदेशी अनुदान (नियमन ) कानून" के तहत लिया गया था। 2006 मे तथाकथित धर्म निरपेक्ष सरकार ने इस कानून मे संशोधन किया।
- किसी भी राज्य के लिए अपने कानून बनाना उसका अधिकार है। लेकिन समाज को इस कानून बनने कि प्रक्रिया कि सतत निगरानी करनी चाहिए। ये इसलिये जरूरी है कि प्रायः आधुनिक राष्ट्र - राज्य खुद को अपने ही नागरिको के विरूद्व सुरक्षित करने के लिए उपाय करते हुए पाये गय है। "विदेशी अनुदान (नियमन ) कानून" मे परिवर्तन कि वजह राष्ट्रीय सुरक्षा का रहा है।
- राष्ट्रीय हित, आतंरिक सुरक्षा और राजनितिक प्रकृति के संगठन --ये वो कारण है जिनकी वजह से सरकार ये सुनिश्चित करना चाहती है कि विदेशी अनुदान का इस्तेमाल सिर्फ " सार्थक कार्यो " के लिये किया जाए। कौन से काम सार्थक है इस काम के लिये सरकार ने जिलाधिकारी तय कर रखे है। इसके साथ सरकार ही ये निर्णय करेगी कि कौन सा संगठन " राजनितिक प्रकृति " का है और इसलिये विदेशी अनुदान का पात्र नही है।
- --------शिक्षा हो या जन स्वास्थ, लोगो के भोजन का हक हो या सुचना का अधिकार, रोजगार का अधिकार हो या औरतो का अधिकार --इन सारे मुद्दों को किसी ना किसी रुप मे राजनितिक मुद्दा कहा जा सकता है। जल, जंगल और जमीन या रोजगार के हक का मुद्दा तो राजनैतिक है ही। केरल मे कोक के खिलाफ आंदोलन हो या तमिलनाडु मे समंदर किनारे पर्यटन स्थल बनाने के खिलाफ मछुआरों का संघर्ष, जंगल से बाहर किये जाने के खिलाफ आदिवासियो का आंदोलन हो, उड़ीसा, मुम्बई, बंगाल या छत्तीसगढ़, झारखण्ड मे विदेशी कम्पनियों या देशी पूंजी के लिये जमीन अधिग्रहण के खिलाफ अभियान --इनमे से कौन राजनितिक है और कौन सामाजिक?
- साम्प्रदायिकता के खिलाफ जनता को शिक्षित करना तो सही मे राजनितिक काम ही है। नए "विदेशी अनुदान (नियमन ) कानून" मे ऐसी गतिविधि को विदेशी अनुदान के लिए अनुचित माना गया है, जो समुदायों के बीच विभेद और वैमनस्य को बढावा देती हो। लेकिन हमे यह पता है कि रामजन्म भूमि आंदोलन से लेकर गुजरात के क़त्ल- ओ - गारत तक या उसके बाद गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, केरल, आदि मे ईसाईयों, मुसलमानो के खिलाफ निरंतर अभियान मे शामिल RSS , विश्व हिंदु परिषद या बजरंग दल को अभी तक राज्य कि तरफ से वैमन्स्यकारी गतिविधि का दोषी नही बताया गया है, जबकि वर्त्तमान सरकार M F hussain कि कलाकृति कि जांच करने के बाद इस नतीजे पर पहुंची है कि वे समुदायों के बीच नफरत पैदा कर सकती है, और उन पर करवाई कि जा सकती है। अगर हुसैन कोई विदेशी अनुदान लेना चाहे तो उन्हें रोका जा सकता है।
- विनायक सेन का मामला हो या सरोज मोंहंती कि गिरफ़्तारी का मुद्दा- अगर आप इनके समर्थन मे आवाज उठाते है तो आप कि गतिविधि को राजनितिक मानने का वाजिब कारण सरकार के पास है, और आप को विदेशी अनुदान नही मिलेगा।
- जिस देश मे सर्वोच्च ख़ुफ़िया संस्था RSS को सैनिक Training देने कि तैयारी कर सकती है। वहा कौन सी 'राजनीती' देशहित मे है और कौन सी देश विरोधी ? किसकी राजनीती को निष्प्रभावी करने कि कोशिश "विदेशी अनुदान (नियमन) कानून- २००६" का प्रस्ताव कर रहा है?

साभार ,
अपूर्वानंद जी

Thursday, 2 August 2007

छत्तीसगढ़ी ददरिया: एक परिचय

ऑफिस मे मुझे छत्तीसगढ़ "बीट" मिली हुई है। हालांकि ज्यादा दिन नही हुए है पर इस राज्य कि विविधता ने मुझे मोह लिया है। हर दिन इस राज्य के बारे मे मुझे नयी जानकारी मिलती है। हर राज्य कि तरह यहाँ कि अपनी समस्याए है। पर अभी तक जो जानकारी मुझे मिली है वो सचमुच अनोखी है। इस बार जानते है इस राज्य कि एक अनोखी लोक धुन को। इसके बारे मे मुझे युवराज गजपाल जी के लेख से जानकारी हुई। उन्ही का एक लेख आप के पेशेनजर है।
- छतीसगढ़ की लोक संस्कृति मे ददरिया का एक अलग ही मह्त्व है । आपको गाँवो मे, खेत–खलिहानो मे लोग ददरिया गाते , गुनगुनाते मिल जायेंगे । मुझे हाँलाकि संगीत के बारे मे ज्यादा ज्ञान नही है लेकिन मैने ददरिया को जैसा देखा और महसूस किया वो यहाँ पर लिखने की कोशिश कर रहा हूं ।
ददरिया को कुछ इस तरह से परिभाषित किया जा सकता है । ददरिया छत्तीसगढ़ी गाने की एक शैली/विधा है जिसमे गाने का मुखड़ा और अंतरा भावात्मक रूप से संबंध मुक्त होता है । या दूसरे शब्दो में कहें तो गाने के मुखड़े और अंतरे के मायने या अर्थ मे कोई विशेष संबंध नही होता । और यही वजह है कि किसी एक ददरिया के अंतरे को किसी दूसरे ददरिया के साथ आसानी से उपयोग किया जा सकता है ।
जैसा कि गाने मे होता है कि अंतरे का उपयोग, मुखड़े के भाव को पूरा करने के लिये किया जाता है वैसा ददरिया मे नही होता । ददरिया की तुलना हम गजल से कर सकते है । यद्दपि ददरिया और गजल की गायन शैली पूरी तरह से अलग है लेकिन दोनो की रचना मे काफी समानता है । गजल अलग-अलग शेर का संग्रह होता है और गजल मे भी मुखड़े का अंतरे (शेर) से भावात्मक रूप से संबंध नही होता है अगर कुछ अपवाद जैसे “ चुपके-चुपके रात दिन ...” को छोड़ दे तो ।
लेकिन गजल में समान “रदिफ” और “काफिया” के नियम होने की वजह से हमें ऐसा आभास होता है कि सारे शेर एक दुसरे से जुड़े है । गजल से जो परिचित नही है उन्हे बता दूं कि किसी गजल के हर शेर की दूसरी लाइन मे समान शब्द को ‘रदिफ’ और रदिफ के तुरंत पहले उपयोग होने वाले शब्द को ‘काफिया’ कहते है। समान रदिफ का मतलब तो समान शब्द होता है लेकिन समान काफिया का मतलब केवल लय के रूप मे समानता होती है न कि शब्दो के रूप मे ।
ये शैली अक्सर कव्वाली मे भी देखी जाती है जिसमे बीच मे कव्वाल जो अंतरा गाता है उसका मुखड़े से कोई संबंध नही होता । अधिकतर ददरिया के मुखड़े मे एक अवधारणा होती है जो कि लगभग अपने आप मे पूरी कहानी, सारांश मे बता देती है । उसके बाद आप अंतरे को किसी भी परिस्थिति के साथ जोड़कर और ददरिया के मुखड़े के लय के साथ मिलाकर पूरा ददरिया गा सकते है । मै ददरिया का एक उदाहरण यहाँ पर प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
पाँच के लगैया, पचीस लग जाय ।
बिना लेगे नई तो छोड़व, पुलिस लग जाय, हाय पुलिस लग जाय
बेल तरी बेलन, बेलन तरी ढोल ।
वहू ड़ोंगरी म सजन भाई मोर,
देख पाही तोला ले जाही का ग मोला , राउत भैया मोर ।
इस ददरिया में "बेल तरी बेलन" मुखड़ा है और " पाँच के लगैया " अंतरा है । यहाँ पर एक बात और बता दूँ कि अधिकतर ददरिया की शुरूवात अंतरे से होती है न कि मुखड़े से, और वही इस ददरिया मे भी है। यहाँ पर मुखड़े का हिन्दी मे अनुवाद करना कठिन है क्योकि इस मुखड़े मे एक अवधारणा है जिसका हिन्दी मे अनुवाद करने पर पूरा अर्थ चला जायेगा । ददरिया का अंतरा गजल के शेर की तरह दो लाईन का होता है, लेकिन ददरिया में अंतरे के दोनो लाईन के अर्थ या भाव मे संबंध होना आवश्यक नही होता । दोनो लाईनो के बीच मे केवल एक तुकबंदी होती है ।
यहाँ पर अगर फिर से ददरिया के अंतरे कि तुलना ग़जल के शेर से करें तो जैसा गजल के दो शेरो के बीच मे समान रदिफ और काफिया का नियम लागू होता है वही नियम ददरिया के अंतरे की दोनो लाईनो के बीच मे होता है । लेकिन दो अंतरों के बीच मे रदिफ और काफिया का नियम लागू नही होता । उपर के उदाहरण मे “लग जाय” को रदिफ कहा जा सकता है । ‘पचीस’ और ‘पुलिस’ को काफिया कहा जा सकता है ।
कभी–कभी समान रदिफ के नियम को शिथिल करके केवल समान काफिया के नियम से भी काम चलाया जा सकता है । वैसे मैने अभी उपर जो उदाहरण दिया है उसके अंतरे की दोनो लाईन के अर्थ मे कुछ संबंध नज़र आता है लेकिन अधिकतर ददरिया मे ऐसा नही होता । इस अंतरे के पहले लाईन मे ये कहा गया है कि मैं पाँच रूपये के बदले पच्चीस रूपया खरचने के लिये तैयार हूँ और दूसरे लाईन का मतलब है कि चाहे पुलिस का चक्कर लागाना पडे या जेल की हवा खाना पडे लेकिन मैं तुम्हे, तुम्हारे घर से भगा कर ले जाउँगा और शादी जरूर करुँगा । अंतरे का एक दूसरा उदाहरण देखिये ,
आमा के पाना, डोलत नईये।
का होगे टुरी ह, बोलत नईये।
इसमे पहली लाईन का मतलब है कि आम के पेड़ की पत्तियाँ हिल नही रही है और दूसरा लाइन का मतलब है कि पता नही क्यों लड़की मेरे साथ बात नही कर रही है । इस अंतरे को अगर देखे तो इसमे दोनो लाईन के बीच मे ऐसा कोई अर्थपूर्ण संबंध नजर नही आता । और ऐसा अधिकतर ददरिया के अंतरे मे होता है ।
जैसा कि मैने पहले लिखा था कि ददरिया के अंतरे को आप किसी भी ददरिया मुखडे के साथ उपयोग कर सकते है बस आपको गाने की लय थोडी बदलनी पड़ेगी और कभी कभी एक दो शब्द जैसे " ग, य, ओ , का-ग, का-य " जोड़कर इसे आसानी के साथ दूसरे ददरिया के साथ उपयोग कर सकते है ।
ये जो शब्द है वो छतीसगढ़ी के बहुत सुंदर और प्यार भरे शब्द है । "ग " को किसी पुरूष को संबोधित करने के लिये उपयोग करते है , और "ओ" या " य" को किसी महिला को संबोधित करने के लिये उपयोग करते है । " ओ" को बडों के लिये और "य " का प्रयोग छोटे, हमसाथी के लिये होता है ।
अब सवाल ये आता है कि ये कैसे संभव होता है कि किसी भी अंतरे को किसी भी ददरिया के साथा गाया जा सके । तो गजल मे एक और नियम होता है जिसे ‘बेहर’ कहते हैँ, जिसका मतलब ‘मीटर’ या शेर कि लंबाई से होता है ।
ददरिया के अंतरे के बोल का "स्केल " और " मीटर" लगभग एक सा होता है या आसपास होता है । या गजल कि भाषा मे कहें तो बेहर मे ज्यादा अंतर नही होता है । और यही वजह है कि एक ददरिया के अंतरे को दूसरी ददरिया के साथ उपयोग कर सकते है ।
ददरिया का एक अंतरा है " चाँदी के मुंदरी, किनारी करले , मे रथों मुजगहन , चिन्हारी करले । " जिसे अपना परिचय देने के लिये उपयोग करते है, मैने इसको सभी ददरिया के साथ गा कर देखा है , और मैने पाया कि किसी भी ददरिया की शुरूवात इसके साथ कर सकते है ।
जैसा कि मैने पहले लिखा है कि समान ‘बेहर’ के नियम को पूरा करने के लिये कभी-कभी बोल मे थोड़ा बहुत फेरबदल करना पड़ सकता है । ददरिया को आप किसी भी परिस्थिति मे गा सकते है , चाहे वो खुशी हो या गम हो । इसे आप प्यार मे, विरह मे , छेड़छाड़ मे , तकरार मे, हँसी- मजाक मे, दोस्ती मे , दुशमनी मे कही पर भी उपयोग कर सकते है ।
उपर जिस ददरिया का उदाहरण दिया गया है उसे अधिकतर कव्वाली की तरह सवाल जवाब यानी कि तकरार के लिए गाया जाता है । ये कोई जरूरी नही लेकिन अधिकतर मैने इसे इसी रूप मे सुना है । सवाल जवाब की इस शैली का सबसे ज्यादा उपयोग शादी के समय "मड़वा नाच " के लिये होता है, हालांकि "मड़वा नाच" एक अलग शैली है लेकिन वो ददरिया से मिलती जुलती है ।
मढ़वा नाच मे गाने के एक ही लाईन पर दो-तीन घंटे तक नाचा जा सकते है । मढ़वा नाच मे दो पक्ष होते है और दोनो के बीच गाने के अंतरे के माध्यम से सवाल जवाब चलता है लेकिन गाने का मुखड़ा एक ही होता है ।
मड़वा नाच मे जो अंतरा होता है वो ददरिया का ही अंतरा होता है , इसलिये मैने इसका यहाँ उल्लेख किया है । आप अगर छतीसगढ़ी गाने सुनते है तो आप ने ममता चंद्राकर का एक प्रसिद्ध गाना सुना होगा जिसके बोल है "तोर मन कईसे लागे राजा, महल भीतरी म तोर मन कइसे लागे " , ये गाना वास्तव मे गाना नही ददरिया है ।
मैं आखिर में अपने पसंद का एक ददरिया लिख रहा हूं । ये ददरिया इसलिये, क्योंकि पहली बार मुझे ददरिया और गाने मे अंतर पता चल तो मेरे संगीत प्रेमी मित्र छोटू राम साहू ने इसी ददरिया का उदाहरण दिया था । ये ददरिया मुझे इसलिये भी पसंद है, क्योंकि ये मेरे पसंदीदा गायक स्व. केदार यादव जी के द्वारा गाया गया है जिनकी आवाज मे मुझे एक जादू नज़र आता है।
बागे बगीचा दिखे ले हरियर ।
दिल्ली वाली नई दिखे , बधे हो नरियर, मोर झुल तरी ।
मोर झुल तरी गेंदा , इंजन गाढ़ी सेमर फुलगे ,
सेमर फुलगे अगासमानी , चिटको घड़ी नरवा म ,
नरवा म अगोर लेबे ओ, नरवा म अगोर लेबे य, नरवा म अगोर लेबे ग,
चाँदी के मुंदरी, उलाव कईसे य ।
ठाढ़े अंगना म संगी , बलाव कईसे य, मोर झुल तरी ।
मोर झुल तरी गेँदा , इँजन गाढ़ी सेमर फुलगे ,
सेमर फुलगे अगासमानी , चिटको घड़ी नरवा म ,
नरवा म अगोर लेबे ओ, नरवा म अगोर लेबे य, नरवा म अगोर लेबे ग,
आमा के पाना डोलत नईये।
का होगे टुरी ह बोलत नईये, मोर झुल तरी ॥
मोर झुल तरी गेँदा , इँजन गाढ़ी सेमर फुलगे ,
सेमर फुलगे अगासमानी , चिटको घड़ी नरवा म ,
नरवा म अगोर लेबे ओ, नरवा म अगोर लेबे य, नरवा म अगोर लेबे ग,
गाय चराये, हियाव करले ।
दोस्ती मे मजा नईये, बिहाव करले , मोर झुल तरी ।
मोर झुल तरी गेंदा , इंजन गाढ़ी सेमर फुलगे ,
सेमर फुलगे अगासमानी , चिटको घड़ी नरवा म ,
नरवा म अगोर लेबे ओ, नरवा म अगोर लेबे य, नरवा म अगोर लेबे ग,
पाँच के लगैया, पचीस लग जाय ।
बिना लेगे नई छोड़व, पुलिस लग जाय, मोर झुल तरी ।
मोर झुल तरी गेँदा , इँजन गाढ़ी सेमर फुलगे ,
सेमर फुलगे अगासमानी , चिटको घड़ी नरवा म ,
नरवा म अगोर लेबे ओ, नरवा म अगोर लेबे य, नरवा म अगोर लेबे

Wednesday, 1 August 2007

कलम को सलाम




आज जब आदमी कि पहचान उस के जेब मे पडे पैसे से कि जा रही हो, ऐसे मे कथित तौर पर भूमंडलीकरण कि आंधी मे आई अमीरी ? के बीच गरीब और गरीबी कि सही तस्वीर पेश करने वाले पत्रकार "Palagummi sainath " को प्रतिष्ठित " Ramon Magsaysay Award " से नवाज़ा गया है।
- ये पुरस्कार आज के दौर मे उस ठण्डी हवा कि तरह है, जब पत्रकारो को भूतो और पिशाचो कि कहानिया लाने का दवाब झुलसाता रहा है।
- विकास कि अंधी दौर मे जब हर तरफ पैसे कि झूठी शान बघारी जा रही हो। भारत से गरीबी के "बिला" जाने का दावा किया जा रहा हो, ऐसे मे sainath कि कलम समाज को आइना दिखाने का काम कर रही है।
- इस कलम को सलाम --------