ऑफिस मे मुझे छत्तीसगढ़ "बीट" मिली हुई है। हालांकि ज्यादा दिन नही हुए है पर इस राज्य कि विविधता ने मुझे मोह लिया है। हर दिन इस राज्य के बारे मे मुझे नयी जानकारी मिलती है। हर राज्य कि तरह यहाँ कि अपनी समस्याए है। पर अभी तक जो जानकारी मुझे मिली है वो सचमुच अनोखी है। इस बार जानते है इस राज्य कि एक अनोखी लोक धुन को। इसके बारे मे मुझे युवराज गजपाल जी के लेख से जानकारी हुई। उन्ही का एक लेख आप के पेशेनजर है।
- छतीसगढ़ की लोक संस्कृति मे ददरिया का एक अलग ही मह्त्व है । आपको गाँवो मे, खेत–खलिहानो मे लोग ददरिया गाते , गुनगुनाते मिल जायेंगे । मुझे हाँलाकि संगीत के बारे मे ज्यादा ज्ञान नही है लेकिन मैने ददरिया को जैसा देखा और महसूस किया वो यहाँ पर लिखने की कोशिश कर रहा हूं ।
ददरिया को कुछ इस तरह से परिभाषित किया जा सकता है । ददरिया छत्तीसगढ़ी गाने की एक शैली/विधा है जिसमे गाने का मुखड़ा और अंतरा भावात्मक रूप से संबंध मुक्त होता है । या दूसरे शब्दो में कहें तो गाने के मुखड़े और अंतरे के मायने या अर्थ मे कोई विशेष संबंध नही होता । और यही वजह है कि किसी एक ददरिया के अंतरे को किसी दूसरे ददरिया के साथ आसानी से उपयोग किया जा सकता है ।
जैसा कि गाने मे होता है कि अंतरे का उपयोग, मुखड़े के भाव को पूरा करने के लिये किया जाता है वैसा ददरिया मे नही होता । ददरिया की तुलना हम गजल से कर सकते है । यद्दपि ददरिया और गजल की गायन शैली पूरी तरह से अलग है लेकिन दोनो की रचना मे काफी समानता है । गजल अलग-अलग शेर का संग्रह होता है और गजल मे भी मुखड़े का अंतरे (शेर) से भावात्मक रूप से संबंध नही होता है अगर कुछ अपवाद जैसे “ चुपके-चुपके रात दिन ...” को छोड़ दे तो ।
लेकिन गजल में समान “रदिफ” और “काफिया” के नियम होने की वजह से हमें ऐसा आभास होता है कि सारे शेर एक दुसरे से जुड़े है । गजल से जो परिचित नही है उन्हे बता दूं कि किसी गजल के हर शेर की दूसरी लाइन मे समान शब्द को ‘रदिफ’ और रदिफ के तुरंत पहले उपयोग होने वाले शब्द को ‘काफिया’ कहते है। समान रदिफ का मतलब तो समान शब्द होता है लेकिन समान काफिया का मतलब केवल लय के रूप मे समानता होती है न कि शब्दो के रूप मे ।
ये शैली अक्सर कव्वाली मे भी देखी जाती है जिसमे बीच मे कव्वाल जो अंतरा गाता है उसका मुखड़े से कोई संबंध नही होता । अधिकतर ददरिया के मुखड़े मे एक अवधारणा होती है जो कि लगभग अपने आप मे पूरी कहानी, सारांश मे बता देती है । उसके बाद आप अंतरे को किसी भी परिस्थिति के साथ जोड़कर और ददरिया के मुखड़े के लय के साथ मिलाकर पूरा ददरिया गा सकते है । मै ददरिया का एक उदाहरण यहाँ पर प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
पाँच के लगैया, पचीस लग जाय ।
बिना लेगे नई तो छोड़व, पुलिस लग जाय, हाय पुलिस लग जाय
बेल तरी बेलन, बेलन तरी ढोल ।
वहू ड़ोंगरी म सजन भाई मोर,
देख पाही तोला ले जाही का ग मोला , राउत भैया मोर ।
इस ददरिया में "बेल तरी बेलन" मुखड़ा है और " पाँच के लगैया " अंतरा है । यहाँ पर एक बात और बता दूँ कि अधिकतर ददरिया की शुरूवात अंतरे से होती है न कि मुखड़े से, और वही इस ददरिया मे भी है। यहाँ पर मुखड़े का हिन्दी मे अनुवाद करना कठिन है क्योकि इस मुखड़े मे एक अवधारणा है जिसका हिन्दी मे अनुवाद करने पर पूरा अर्थ चला जायेगा । ददरिया का अंतरा गजल के शेर की तरह दो लाईन का होता है, लेकिन ददरिया में अंतरे के दोनो लाईन के अर्थ या भाव मे संबंध होना आवश्यक नही होता । दोनो लाईनो के बीच मे केवल एक तुकबंदी होती है ।
यहाँ पर अगर फिर से ददरिया के अंतरे कि तुलना ग़जल के शेर से करें तो जैसा गजल के दो शेरो के बीच मे समान रदिफ और काफिया का नियम लागू होता है वही नियम ददरिया के अंतरे की दोनो लाईनो के बीच मे होता है । लेकिन दो अंतरों के बीच मे रदिफ और काफिया का नियम लागू नही होता । उपर के उदाहरण मे “लग जाय” को रदिफ कहा जा सकता है । ‘पचीस’ और ‘पुलिस’ को काफिया कहा जा सकता है ।
कभी–कभी समान रदिफ के नियम को शिथिल करके केवल समान काफिया के नियम से भी काम चलाया जा सकता है । वैसे मैने अभी उपर जो उदाहरण दिया है उसके अंतरे की दोनो लाईन के अर्थ मे कुछ संबंध नज़र आता है लेकिन अधिकतर ददरिया मे ऐसा नही होता । इस अंतरे के पहले लाईन मे ये कहा गया है कि मैं पाँच रूपये के बदले पच्चीस रूपया खरचने के लिये तैयार हूँ और दूसरे लाईन का मतलब है कि चाहे पुलिस का चक्कर लागाना पडे या जेल की हवा खाना पडे लेकिन मैं तुम्हे, तुम्हारे घर से भगा कर ले जाउँगा और शादी जरूर करुँगा । अंतरे का एक दूसरा उदाहरण देखिये ,
आमा के पाना, डोलत नईये।
का होगे टुरी ह, बोलत नईये।
इसमे पहली लाईन का मतलब है कि आम के पेड़ की पत्तियाँ हिल नही रही है और दूसरा लाइन का मतलब है कि पता नही क्यों लड़की मेरे साथ बात नही कर रही है । इस अंतरे को अगर देखे तो इसमे दोनो लाईन के बीच मे ऐसा कोई अर्थपूर्ण संबंध नजर नही आता । और ऐसा अधिकतर ददरिया के अंतरे मे होता है ।
जैसा कि मैने पहले लिखा था कि ददरिया के अंतरे को आप किसी भी ददरिया मुखडे के साथ उपयोग कर सकते है बस आपको गाने की लय थोडी बदलनी पड़ेगी और कभी कभी एक दो शब्द जैसे " ग, य, ओ , का-ग, का-य " जोड़कर इसे आसानी के साथ दूसरे ददरिया के साथ उपयोग कर सकते है ।
ये जो शब्द है वो छतीसगढ़ी के बहुत सुंदर और प्यार भरे शब्द है । "ग " को किसी पुरूष को संबोधित करने के लिये उपयोग करते है , और "ओ" या " य" को किसी महिला को संबोधित करने के लिये उपयोग करते है । " ओ" को बडों के लिये और "य " का प्रयोग छोटे, हमसाथी के लिये होता है ।
अब सवाल ये आता है कि ये कैसे संभव होता है कि किसी भी अंतरे को किसी भी ददरिया के साथा गाया जा सके । तो गजल मे एक और नियम होता है जिसे ‘बेहर’ कहते हैँ, जिसका मतलब ‘मीटर’ या शेर कि लंबाई से होता है ।
ददरिया के अंतरे के बोल का "स्केल " और " मीटर" लगभग एक सा होता है या आसपास होता है । या गजल कि भाषा मे कहें तो बेहर मे ज्यादा अंतर नही होता है । और यही वजह है कि एक ददरिया के अंतरे को दूसरी ददरिया के साथ उपयोग कर सकते है ।
ददरिया का एक अंतरा है " चाँदी के मुंदरी, किनारी करले , मे रथों मुजगहन , चिन्हारी करले । " जिसे अपना परिचय देने के लिये उपयोग करते है, मैने इसको सभी ददरिया के साथ गा कर देखा है , और मैने पाया कि किसी भी ददरिया की शुरूवात इसके साथ कर सकते है ।
जैसा कि मैने पहले लिखा है कि समान ‘बेहर’ के नियम को पूरा करने के लिये कभी-कभी बोल मे थोड़ा बहुत फेरबदल करना पड़ सकता है । ददरिया को आप किसी भी परिस्थिति मे गा सकते है , चाहे वो खुशी हो या गम हो । इसे आप प्यार मे, विरह मे , छेड़छाड़ मे , तकरार मे, हँसी- मजाक मे, दोस्ती मे , दुशमनी मे कही पर भी उपयोग कर सकते है ।
उपर जिस ददरिया का उदाहरण दिया गया है उसे अधिकतर कव्वाली की तरह सवाल जवाब यानी कि तकरार के लिए गाया जाता है । ये कोई जरूरी नही लेकिन अधिकतर मैने इसे इसी रूप मे सुना है । सवाल जवाब की इस शैली का सबसे ज्यादा उपयोग शादी के समय "मड़वा नाच " के लिये होता है, हालांकि "मड़वा नाच" एक अलग शैली है लेकिन वो ददरिया से मिलती जुलती है ।
मढ़वा नाच मे गाने के एक ही लाईन पर दो-तीन घंटे तक नाचा जा सकते है । मढ़वा नाच मे दो पक्ष होते है और दोनो के बीच गाने के अंतरे के माध्यम से सवाल जवाब चलता है लेकिन गाने का मुखड़ा एक ही होता है ।
मड़वा नाच मे जो अंतरा होता है वो ददरिया का ही अंतरा होता है , इसलिये मैने इसका यहाँ उल्लेख किया है । आप अगर छतीसगढ़ी गाने सुनते है तो आप ने ममता चंद्राकर का एक प्रसिद्ध गाना सुना होगा जिसके बोल है "तोर मन कईसे लागे राजा, महल भीतरी म तोर मन कइसे लागे " , ये गाना वास्तव मे गाना नही ददरिया है ।
मैं आखिर में अपने पसंद का एक ददरिया लिख रहा हूं । ये ददरिया इसलिये, क्योंकि पहली बार मुझे ददरिया और गाने मे अंतर पता चल तो मेरे संगीत प्रेमी मित्र छोटू राम साहू ने इसी ददरिया का उदाहरण दिया था । ये ददरिया मुझे इसलिये भी पसंद है, क्योंकि ये मेरे पसंदीदा गायक स्व. केदार यादव जी के द्वारा गाया गया है जिनकी आवाज मे मुझे एक जादू नज़र आता है।
बागे बगीचा दिखे ले हरियर ।
दिल्ली वाली नई दिखे , बधे हो नरियर, मोर झुल तरी ।
मोर झुल तरी गेंदा , इंजन गाढ़ी सेमर फुलगे ,
सेमर फुलगे अगासमानी , चिटको घड़ी नरवा म ,
नरवा म अगोर लेबे ओ, नरवा म अगोर लेबे य, नरवा म अगोर लेबे ग,
चाँदी के मुंदरी, उलाव कईसे य ।
ठाढ़े अंगना म संगी , बलाव कईसे य, मोर झुल तरी ।
मोर झुल तरी गेँदा , इँजन गाढ़ी सेमर फुलगे ,
सेमर फुलगे अगासमानी , चिटको घड़ी नरवा म ,
नरवा म अगोर लेबे ओ, नरवा म अगोर लेबे य, नरवा म अगोर लेबे ग,
आमा के पाना डोलत नईये।
का होगे टुरी ह बोलत नईये, मोर झुल तरी ॥
मोर झुल तरी गेँदा , इँजन गाढ़ी सेमर फुलगे ,
सेमर फुलगे अगासमानी , चिटको घड़ी नरवा म ,
नरवा म अगोर लेबे ओ, नरवा म अगोर लेबे य, नरवा म अगोर लेबे ग,
गाय चराये, हियाव करले ।
दोस्ती मे मजा नईये, बिहाव करले , मोर झुल तरी ।
मोर झुल तरी गेंदा , इंजन गाढ़ी सेमर फुलगे ,
सेमर फुलगे अगासमानी , चिटको घड़ी नरवा म ,
नरवा म अगोर लेबे ओ, नरवा म अगोर लेबे य, नरवा म अगोर लेबे ग,
पाँच के लगैया, पचीस लग जाय ।
बिना लेगे नई छोड़व, पुलिस लग जाय, मोर झुल तरी ।
मोर झुल तरी गेँदा , इँजन गाढ़ी सेमर फुलगे ,
सेमर फुलगे अगासमानी , चिटको घड़ी नरवा म ,
नरवा म अगोर लेबे ओ, नरवा म अगोर लेबे य, नरवा म अगोर लेबे