Saturday, 25 August 2007

यौमे आजादी कि परेशानिया - १

15 अगस्त आया, 15 अगस्त आया, और आकर चला गया। पर इस बार इसने बहुत परेशान कर दिया। तिरंगा लहराने के पहले " परिंदा भी पर नही मार सके" जैसा सुरक्षा इंतजाम था। 10 अगस्त कि रात को मकान मालिक के साथ पुलिस का एक सिपाही हमारी "पहचान" करने आया। " पहचान " यानी हमारी "वफादारी"। मेडिकल के तलबा मेरे छोटे भाई को यह सब पिछले 3 साल से करना पड़ रहा था। मेरे लिये ये पहली बार था कि, मैं हिन्दुस्तानी ही हु, इसका सबूत देना पड़ा।
- कहा घर है?
- बिहार से हु।
- बिहार मे कहा ? बंगाल के पास के किसी ज़िले से?
- नही, मुज़फ़्फ़रपुर से।
- दिल्ली मे कब से हो?
- दुसरा साल है।
- क्या करते हो?
- पत्रकार हु।
-----इस जवाब के बाद सिपाही नरम पड़ गया। उसने एक फॉर्म भरवाया। फॉर्म पर तस्वीर चिपकवाई। परमानेंट और लोकल पता लिखवाया, और चला गया। हां, हमारे फ़्लैट के बाजु मे रह रहे उन लोगो से कोई फॉर्म नही भरवाया गया जो मुसलमान नही थे।
- हालांकि हमारे पडोसी जुलाई के आख़िर मे आये थे। अब ये मान भी लिया जाये कि ये सब सुरक्षा के लिये किया जा रहा था, तो फिर उन नए लड़को कि पड़ताल करने कि जरूरत क्यो नही महसूस कि गयी।
- आस पास के कई नए लड़को-? से बात करने पर पता चला कि, उनलोगों से पैसे भी वसूले गए। ये सब पुख्ता सुरक्षा इंतजाम के लिए किया जा रहा था, या उनके दिल और दिमाग मे कुछ और था, इसका कुछ तो अंदाजा मुझे महसूस हुआ, क्या आपको को भी ऐसा लगा?

2 comments:

राज भाटिय़ा said...

Kamran Perwaiz भाई, जिस कोम मे कुछ लोग गलत हो, तो शरीफ़ लोगो को भी उन गलत लोगो का खमियना भुगतना पड्ता हे,आप हमारे ही भाई हो,अब किसी के चेहरे पर तो नही लिखा कोन कया हे,देश की हिफ़ाजत पेहले हे मेरे ओर आप से

editor said...

sad. it is frustrating but it happens.