Sunday, 27 May 2007

उर्दू है जिसका नाम

" उर्दू है जिसका नाम ,

हमी जानते है 'दाग' ,

सारे जहा मे धूम ,

हमारी जबान की है।"


दाग देहलवी का ये शेर १५० साल पुराना है। इतने दिनों मे न जाने यमुना मे कितना पानी बह चूका। कितनी सरकारे दिल्ली के तख़्त पर बैठी। पर किसी ने उर्दू के लिये शायद ही कुछ किया हो। अगर यु कहा जाये कि, २०वी शताब्दी उर्दू भाषा, साहित्य, और पत्रकारिता कि उन्नति और पतन दोनो कि शताब्दी थी, तो शायद गलत ना हो। किसी भी भाषा कि उन्नति का दारोमदार संचार माध्यम पर होता है। आज सुरतेहाल ये है कि उर्दू का कोई मकबूल अख़बार या मशहूर पत्रिका नही है। काफी प्रसार संख्या वाली पत्रिका 'शमा' १९९९ मे बंद हो गई। उर्दू अखबार 'हिंद समाचार ' कि प्रसार संख्या रोज कम हो रही है। उर्दू कि मकबूल पत्रिकाये एक एक कर बंद हो रही है। २००५ मे एक अहम पत्रिका 'शब् ख़ून' ४० वर्षो का सफ़र पुरा कर बंद हो गयी।

- गुजरे साल केंद्र सरकार ने एक उर्दू चैनल शुरू किया था। १५ अगस्त से शरू हुआ ये चैनल अभी तक हवा मे ही है। दरअसल सरकार उर्दू की तरक्की के लिये संजीदा नही है। हाल के दिनों मे fm रेडियो के आने से ना सिर्फ रेडियो बच गया है बल्कि ये हिंदी जुबान को भी फायेदा पहुँचा रह है। उर्दू शायरी अब भी मशहूर है। मगर अब इनकी किताबे नही बिकती। शायरी कि किताबे तो उर्दू से ज्यादा हिंदी लिपि मे बिकती है।

- हिंदुस्तान के ८० universities मे उर्दू department तो है लेकिन उनमे तलबा कि तादाद कम हो रही है।

- एक और बात है जो उर्दू को मकबूल और मशहूर बनने से रोकती है वो ये कि ' इसे सिर्फ मुसलमानो कि भाषा मान लिया गया है।' और इस बात से तो कोई भी इनकार नही कर सकता कि उर्दू भाषा को देश भर मे फैले ३०,००० madarso ने ही जिंदा रखा हुआ है। इसके अलावा मीडिया और फिल्मो मे इस मीठी जुबान को लोग आज भी जिंदा किये हुये है।

- उर्दू के शोध मे भी जो काम हुआ है वो सब universities के बाहर ही हुआ है।

- मुशायेरे आज भी उर्दू समाज और तहजीब का हिस्सा है। गौर करने वाली बात ये है कि अब मुशायेरे सिर्फ भारत मे ही नही बल्कि अमेरिका, कनाडा , ब्रिटेन और अरब मुल्को मे भी हो रहे है। यहाँ भारत के कई shayaroo को भी बुलाया जाता है। मगर इससे यह खुशफहमी नही होनी चाहिऐ कि उर्दू बहुत तरक्की कर रही है। बात सिर्फ इतनी सी है कि वहा हिंदुस्तान - पाकिस्तान के बहुत से लोग रहते है। उन्हें तफरीह के लिए इस तरह कि मह्फीलो कि जरुरत महसूस होती है। इसका उर्दू के प्रचार प्रसार से कोई मतलब नही है।

- सेमिनार और मुशायेरे हो रहे है। किताबे छप रही है। १२ से ज्यादा उर्दू akadmiya भी कायम है, जो जलसे , सेमिनार, वाद विवाद करवाती रहती है। लिखने वालो को सम्मानित भी करती है।

मगर सच्चाई यही है कि उर्दू जानने वालो का दायरा कम होता जा रह है। उर्दू जानने वालो कि तादाद भी कम जा रही है। भारत कि तमाम प्रादेशिक भाषाओ मे बहुत सी पत्र पत्रिकाये है। मगर उर्दू के पास एक भी नही। सारे जहाँ मे उर्दू जबान कि धूम तो आज भी है। इसके बावजूद यह बेसहारा है।

" चाहने वाले बहुत है

फिर भी मेरा कोई नही,
मैं भी इस मुल्क मे

उर्दू कि तरह रहता हु। "

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