Friday, 29 June 2007

रामलीला मंडळी मे जूतम पैजार



BJP यानी रामलीला मंडळी मे एक बार फिर जूतम पैजार शुरू हो गई है। कार्यकारिणी कि बैठक मे जंग लगे लौह पुरुष ने संघ शरणागत राजनाथ सिंह के राज करने के तरीके पर उंगली उठा दी है। जाहिर सी बात है कि अभी आडवानी को मौका मिला है कि संघ ने उनकी जो बेइज्जती कि थी उसका बदला लिया जाये। आडवानी को पाकिस्तान कि यात्रा के दौरान दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ था कि " जिन्नाह सेकुलर थे "। उनके इस ज्ञान को प्रवचन कर सबको दीक्षित करने का खामियाजा आख़िर उन्ही को मिलना था सो मिला।
- आडवानी को UP और गोवा कि हार से संघ और राजनाथ मंडळी पर हमला करने का अच्छा बहाना मिल गया। दरअसल दोनो राज्यों मे हुए चुनाव मे पार्टी ने आडवानी खेमे को नजरअंदाज कर, संघ के निर्देशो के अनुसार काम किया था। हर जिले मे संघ के दर्जन भर पदाधिकारी BJP का प्रचार करने मे लगे थे। CD काण्ड इसी का नमूना था।
- इनसब के बाद भी अगर BJP का इन राज्यों मे कोई नामलेवा नही बचा तो जाहिर सी बात है कि आडवानी मौका देख कर चौका मारे। राष्ट्रपति चुनाव मे भैरो सिंह शेखावत का खड़ा होना और शिव सेना का इस मुद्दे पर अपने को एनडीए से अलग कर लेना इस बात को दिखाता है कि , लगातार होती हार से भगवा टीम मे अफरा तफरी मची है। अब देखना ये है कि सत्ता कि चाशनी मे लिपटा " राम लीला मंडली का गठबंधन कितनी जल्दी तार तार होता है। क्योकि देश हित मे इस नफरत फ़ैलाने वाली पार्टी का बर्बाद होना ही देश को आबाद रखेगा।

Wednesday, 27 June 2007

हिसाब किताब कर लो

दो जान पहचान मिलकर भ्रमण को निकले और चले-चले नदी के तीर पर पहुँचे। तब एक ने दूसरे से कहा कि भाई! तुम यहाँ खड़े रहो तो मैं शीघ्र एक डुबकी मार लूँ. इसने कहा,‘बहुत अच्छा’. यह सुनकर वह 20 रूपए उसे सौंप कर कपड़े तीर पर रख जो पानी में बैठा तो उसने चतुराई से वे रुपए किसी के हाथ अपने घर भेज दिए. उसने निकल, कपड़े पहन रूपए माँगे. यह बोला,‘लेखा सुन लो’.
उसने कहा,‘अभी देते अबेर भी नहीं हुई, लेखा कैसा?’
निदान दोनों से विवाद होने लगा और सौ पचास लोग घिर आए. उनमें से एक ने रूपए वाले से कहा, ‘अजी क्यों झगड़ते हो?, लेखा किस लिए नहीं सुन लेते’? हार मान उसने कहा, ‘अच्छा कह.' वह बोला, ‘‘जिस काल आपने डुबकी मारी, मैंने जाना डूब गए. पाँच रूपए दे तुम्हारे घर संदेशा भेजा और जब निकले तब भी और पांच रुपए आनंद के दान में दिए. रहे दस तो मैंने अपने घर भेजे हैं उनकी कुछ चिंता हो तो मुझसे टीप लिखवा लो’’.
यह धांधलपने की बात सुनकर वह बिचारा बोला भला भाई! भर पाए।
साभार
असगर वजाहत

अपना गुण मत भुलिये

एक क्रोधी अंधा कहीं चला जाता था कि एक अंधे कुएं में गिर परा और लगा पुकारने के, चलियो दौड़ियो लोगों. मैं कुएं में गिर पड़ा. लोग तरस खा दौड़ कर वहां गए और कुएं के पनघटे पर खड़े होके उसके निकालने का उपाय करने लगे.
कुछ बेर जो हुई तो वह भीतर से रिसाय के बोला कि शीघ्र निकालते हो तो निकालो नहीं तो मैं किधर ही को चला जाता हूँ, मुझे फिर न पाओगे।

सिक्को का नया मोल

भाई लोग कभी सिक्को से दाढ़ी बनाईं है। " हां...हां ...बनाईं है भाई, तुम भी तो बनाते होगे। नाई के यहा सिक्के दे कर ही तो बनती है दाढ़ी।" बेशक बनती है पर तेजी से बदलती इस दुनिया मे जहा " Recycle" का जमाना है, कुछ भाई लोग गंदगी साफ कर रहे है........गंदगी नही साफ कर रहे है बल्कि सिक्के साफ कर रहे है।
----बंगलादेश सीमा पर सिक्को कि तस्करी हो रही है। बांग्लादेश में इन सिक्कों से रेज़र ब्लेड बनाए जा रहे हैं। इस तस्करी के कारण भारत के कई हिस्सों में सिक्कों की कमी हो गई है. हाल मे कोलकाता पुलिस द्वारा पकडे गए एक तस्कर ने इस बात का खुलासा किया है कि हमारे एक रुपए के सिक्के की कीमत दरअसल 35 रुपए जितनी है क्योंकि सिक्के से पाँच से लेकर सात ब्लेड बनाते हैं।
- इन इलाको मे सिक्के कि किल्लत से एक नई मुद्रा चलन मे आ गई है। सिक्कों की कमी से निपटने के लिए असम प्रदेश में चाय-बागान वाले अपने कर्मचारियों को कार्डबोर्ड या गत्ते से बनी सिक्कों की पर्चियाँ दे रहे हैं। इन पर्चियाँ पर लिखा रहता है कि ये पचास पैसे का सिक्का है,एक रुपए का या उससे ज़्यादा का। बागान के भीतर चीज़ें खरीदने या बेचने के लिए इन पर्चियों का इस्तेमाल किया जाता है।
- तो भाई बचा कर रखे अपने पास खुदरा पैसा। ये चिल्लर नही, बहुत काम कि चीज है। और अपने पास ज्यादा खुदरा पैसे नही रखे , वर्ना कल अखबारो मे ये शब्द मिलेंगे " पुलिस ने एक तस्कर को रंगे हाथो पकडा है। जिसके पास अठन्नी और चवन्नी मिली है।"

Tuesday, 26 June 2007

मराठी मानुष कि जय

महाराष्ट्र के स्वयम्भू ठेकेदार बाल ठाकरे ने घोषणा कि है कि, राष्ट्रपति चुनाव मे उनकी जेबी पार्टी UPA उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल का समर्थन करेगी। हालांकि ये राजनीती राज्य मे अपनी पार्टी को मजबूती देने के रणनीति के तहत कि गई है, लेकिन इससे ये बात तो साबित हो ही गई है कि शिवसेना कितनी संकुचित सोच वाली पार्टी है। इससे जहा एक तरफ UPA कि रणनीति सही साबित हुई है, वही BJP को मुँह कि खानी पडी है। एक कहावत है कि " चौबे जी, छब्बे जी बंनने गए और दुबे बन कर आ गए।" यही हुआ है NDA के साथ। भगवा दल तो दुसरे दलो को तोड़ने कि बात कर रहा था। " अंतरात्मा " कि आवाज से वोट करने कि बात कर रह था। अब बचाए अपनी पार्टी और अपने गठबंधन को।

Monday, 25 June 2007

विकास का हाशिया- २

इन सारी बातो का आखिरी सच यही है कि अगर तमाम परियोजनाओ को अमलीजामा पहनाया जाएगा तो राज्य कि ६० फीसदी कृषी योग्य जमीन किसानो के हाथ से निकल जायेगी। यानी स्पेशल इकनॉमिक जोन (सेज) के बगैर ही ५० हजार एकड़ भूमि पर विदेशी कम्पनियो का कब्जा हो जाएगा। करीब १० लाख आदिवासी और किसान अपनी जमीन गवा कर मजदूर बन जायेंगे या यु कहा जाये कि इन कम्पनियो पर निर्भर हो जायेंगे। नक्सल प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियो, पुलिस अधिकारियो मुख्य सचिव और केंद्र सरकार के अधिकारियो कि बस्तर मे ३ बैठके आयोजित हुई है। इनमे इस बात पर जोर दिया गया कि नक्सल प्रभावित सभी राज्य, विकास कि गति को तेज करेंगे। इसके लिये कोई समझौता नही किया जाएगा।
- पता नही क्यो आज विकास कि बात करते वक्त बड़ी कम्पनियों को पूंजी निवेश करने के लिये आमंत्रित करना ही आख़िरी उपाये क्यो समझा जता है। इन कम्पनियों मे क्या ये गरीब आदिवासी CEO बन कर हिस्सेदारी करेंगे क्या?
- खुद केंद्र सरकार ने अपनी रिपोर्ट मे यह माना है कि, नक्सल प्रभावित इलाको मे आदिवासियो समेत करीब २००० लोग मारे गए है। नक्सल हिंसा से प्रभावित इन्ही इलाको मे २ लाख करोड़ रुपये से ज्यादा कि परियोजनाओ के सहमतीपत्र पर हस्ताक्षर हुए है। यानी एक मौत के एवज मे १०० करोड़ रुपये लगाए जा रहे है। तो यह सौदा किस सरकार को मंजूर नही होगा?

विकास का हाशिया

छत्तीसगढ़ मे विकास के नाम पर जो घोटाला हो रह है उस पर ध्यान देने कि जरुरत है। यहा जो चल रहा है उसमे सरकारी अधिकारी " सेल्स मैंन " कि भूमिका मे है। करोडो के वारे न्यारे कैसे होते है, वह भी भुखमरी मे डूबे आदिवासियो के इलाके मे यह देसी विदेशी कम्पनियो कि परियोजनाओ के खाके को देख कर समझा जा सकता है। अमरीकी कम्पनी " टेक्सास पॉवर जेनरेशन " द्वारा राज्य मे १ हजार मेगावाट बिजली उत्पादन का संयंत्र खोलने के सहमती पत्र पर हस्ताक्षर हुए। यानी २० लाख डालर राज्य मे आयेगे। अमरीका कि ही "वन इन्कोर्पोरेट कंपनी " ने ५० करोड़ कि लागत से दवा फैक्ट्री लगाने पर समझौता किया।
- इसके अलावा एक दर्जन विदेशी कम्पनिया खनिज संसाधनों से भरपूर जमीन का दोहन कर ५० हजार करोड़ रुपये इस इलाके मे लगना चाहती है। इसमे पहले कागज को तैयार करने मे ही सत्ताधारियों कि जेब मे ५०० करोड़ पहुंच चुके है। कौडियो के मोल किस तरह समझौता होता है, इसका नजारा " बैलाडिला " मे मिलता है। बैलाडिला खदानों से जो लोहा निकलता है उसे जापान को १६० रुपये प्रति टन ( १६ पैसे प्रति किलोग्राम ) बेचा जता है। वही लोहा मुम्बई के लोहा व्यापरियो और उद्धोगो को ४५० रुपये प्रति टन और छत्तीसगढ़ के व्यापरियो को १६०० रुपये प्रति टन के हिसाब से बेचा जाता है ।

Sunday, 24 June 2007

विकास कि बन्दरबाँट

छत्तीसगढ़ कुछ दिन पहले तक आदिवासी गीतो से गूंजता था। आज ये जगह बंदुको कि आवाज से थर्रा रही है। यहा कि हवा मे ढोल और मांदर कि थाप कि जगह विस्फोट गूंज रहा है। औरतो कि अस्मत लूटी जा रही है। भाई के खून का प्यासा उसका ही भाई बना हुआ है। सरकार हिंसा खत्म करने कि जगह हथियार बाट रही है। पुरा छत्तीसगढ़ खाकी के बूटों तले रौंदा जा रह है। राज्य कि पुलिस के अलावा ६ दुसरे राज्यों कि पुलिस भी यहा तैनात है। सरकार के मुताबिक ये इलाका कश्मीर और नागालैंड के अलावा तीसरा सबसे अशांत इलाका है। इसलिये सुरक्षा के बंदोबस्त जरूरी है। लेकिन पुलिस वह क्या कर रही है इसका नमूना देखिए --------
- नागा पुलिस कि गोली से १२ साल का " कुर्ती कम्मल " मारा गया।
- मिज़ो पुलिस के दर्जनों जवानों ( वहशी ) ने अप्रील महिने मे एक आदिवासी युवती के साथ सामुहिक बलात्कार किया।
- ५- १०- २००६ को पुलिस कि गोली से एक नक्सल मारा गया। इसमे कुछ भी नया नही था --बस उस नक्सल कि उम्र २ साल थी।
- लापता लोगो को तो गिनना वक्त कि बर्बादी है।
- सरकारी योजनाये देखिए तो इन लापता लोगो के नाम आज भी कल्याणकारी योजनाओ मे शामिल है। और तुर्रा ये कि ये लोग आज भी सरकारी योजनाओ का फायेदा भी उठा रहे है। रजिस्टर पर आज भी इनके दस्तखत हो रहे है।
- देश के कुछ सबसे गरीब राज्यों मे से एक इस राज्य मे सुरक्षा बलों पर हर दिन होने वाला खर्चा १० करोड़ है।
- ------- अब नजर डालते है उस सामान पर जिसकी लूट मची हुई है------------------
- खनिज सम्पदा के मामले मे छत्तीसगढ़ सबसे समृद्ध राज्य है। देश का ९० फीसदी टिन अयस्क यही से मिलता है। मुल्क का १६ फीसदी कोयला, १९ फीसदी लोहा, ५० फीसदी हीरा यही मिलता है। पुरे २८ कीमती खनिज यही मौजूद है। यही नही ये इलाका पानी और हरियाली से भी भरा हुआ है। फिर भी आदिवासी विकास के नाम पर कुछ नही हो रहा है। दरअसल यहा विकास के नाम पर लगने वाला पुरा पैसा " रुपया" ना होकर " डालर " है।
- सामाजिक सरोकार जब एक संस्थान का दुसरे संस्थान या सुरक्षाकर्मियों का इस राज्य मे न होकर अपने घर और दुसरे राज्य मे होगी तब तक सम्पूर्ण विकास कि बात करना फ़ालतू है।

साहित्य, दलित और समाज - २

वर्ण आधारित समाज ने हमेशा से कमजोर तबके को और दबाया है। साहित्य मे हमेशा से दलितो को तिरस्कार और अपमान मिला है। एक उदहारण देखिए ---------पुरी रामकथा मे राम जी विरोध करने वाले लोगो को दैत्य कहा गया। पुरी रामचरित मानस मे " मलिक और सेवक " के संबंध को इस तरह से दिखाया गया है जैसे यही मोक्ष प्राप्त करने का आख़िरी जरिया है। एक क्यो और कैसे हुआ इसका सीधा संबंध वर्णवादी सोच से है। कमजोर तबके को " tadan के अधिकारी बताया " गया है। और उस पर तुर्रा ये कि वो जिन्हे जलील किया गया वो भी इसे झूम झूम कर पढ़ते है। मर्यादा पुरोशोत्तम जिन्हे कहा गया वो " शम्बुक " को संस्कृत पढने पर मौत कि सजा देते है।
- ये धर्मशास्त्र है या सत्ता वर्ग का स्तुति गान ?
साभार :
रमणिका गुप्ता

साहित्य, दलित और समाज

आज हमारा साहित्य, सिर्फ साहित्य नही कहलाता है। ये अब दलित साहित्य, स्वर्ण साहित्य मे विभाजित हो चूका है। आख़िर इसकी क्या वजह है? खुद को अच्छा समझने वाले स्वर्ण कभी दलितो का लिखा नही समझ पाये, उसे नकारते रहे, उसे बेकार कहा गया। कुछ तो उसे साहित्य मानते ही नही। इसे अश्लील कहा गया। बावजूद इसके दलित साहित्य तरक्की करता गया। किसी ने आगे बढ कर इनकी मदद नही कि। इनके हाथो को नही थमा। थामते भी कैसे उनके छू जाने से धर्म का नाश होता है । स्वर्ग का रास्ता बंद होता है।

Saturday, 23 June 2007

वोट दो भाई वोट दो

हां तो आप वोट दीजिए। आप का वोट हिंदुस्तान कि शान बचाने के लिये, उसकी लाज बचाने के लिये जरुरी है। आप का वोट ना मिले तो दुनिया के सामने हिंदुस्तान का गौरव कम हो जाएगा।
- अरे आप अभी तक नही समझे, आप का वोट प्रतिभा पाटिल के लिये नही माँगा जा रहा है बल्कि ये तो ताज महल के लिये माँगा जा रहा है। अगर आप ताजमहल के लिये वोट नही करेंगे तो वो अजुबो कि लिस्ट मे नही आ पायेगा।
- यानी आप का वोट ताज को ताज बनाएगा नही तो वो आगरा कि कोई मामूली ईमारत भर रह जाएगा। ये नया चुतिआपा कि है एक विदेशी कंपनी ने। अच्छा अगर ये मान लिया जाये कि ताज को जरुरी वोट नही मिले, तो क्या उसे देखने लोग नही आयेगे।
- ये सब लोगो को बेवकूफ बनाने का नया तरीका है। अपनी मार्केटिंग के लिये ये कम्पनिया कल को इस बात पर भी वोटिंग करवा सकती है कि भगवान् राम है या रावण? और अगर कही गलती से श्रीलंका वालो ने जम कर वोटिंग कर दी तो कम से कम हिंदुस्तान मे उन मोटे पंडो का क्या होगा जो बहती गंगा मे हाथ धो कर नही बल्कि नहा कर लोगो को चुतिया बनाते है?
- भाई लोग ये सब भूल जाइये और वोट कीजिये, नही तो ताज नंबर १ नही रहेगा और फिरंगी हिंदुस्तान आकर हमे कृतार्थ नही कर पाएंगे।

Thursday, 21 June 2007

आप तीन मे है या तेरह मे

एक नगर सेठ थे. अपनी पदवी के अनुरुप वे अथाह दौलत के स्वामी थे. घर, बंगला, नौकर-चाकर थे. एक चतुर मुनीम भी थे जो सारा कारोबार संभाले रहते थे.
किसी समारोह में नगर सेठ की मुलाक़ात नगर-वधु से हो गई. नगर-वधु यानी शहर की सबसे ख़ूबसूरत वेश्या. अपने पेश की ज़रुरत के मुताबिक़ नगर-वधु ने मालदार व्यक्ति जानकर नगर सेठ के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया. फिर उन्हें अपने घर पर भी आमंत्रित किया.
सम्मान से अभिभूत सेठ, दूसरे-तीसरे दिन नगर-वधु के घर जा पहुँचे. नगर-वधु ने आतिथ्य में कोई कमी नहीं छोड़ी. खूब आवभगत की और यक़ीन दिला दिया कि वह सेठ से बेइंतहा प्रेम करती है.
अब नगर-सेठ जब तब नगर-वधु के ठौर पर नज़र आने लगे. शामें अक्सर वहीं गुज़रने लगीं. नगर भर में ख़बर फैल गई. काम-धंधे पर असर होने लगा. मुनीम की नज़रे इस पर टेढ़ी होने लगीं.
एक दिन सेठ को बुखार आ गया. तबियत कुछ ज़्यादा बिगड़ गई. कई दिनों तक बिस्तर से नहीं उठ सके. इसी बीच नगर-वधु का जन्मदिन आया. सेठ ने मुनीम को बुलाया और आदेश दिए कि एक हीरों जड़ा नौलखा हार ख़रीदा जाए और नगर-वधु को उनकी ओर से भिजवा दिया जाए. निर्देश हुए कि मुनीम ख़ुद उपहार लेकर जाएँ.
मुनीम तो मुनीम था. ख़ानदानी मुनीम. उसकी निष्ठा सेठ के प्रति भर नहीं थी. उसके पूरे परिवार और काम धंधे के प्रति भी थी. उसने सेठ को समझाया कि वे भूल कर रहे हैं. बताने की कोशिश की, वेश्या किसी व्यक्ति से प्रेम नहीं करती, पैसों से करती है. मुनीम ने उदाहरण देकर समझाया कि नगर-सेठ जैसे कई लोग प्रेम के भ्रम में वहाँ मंडराते रहते हैं. लेकिन सेठ को न समझ में आना था, न आया. उनको सख़्ती से कहा कि मुनीम नगर-वधु के पास तोहफ़ा पहुँचा आएँ.
मुनीम क्या करते। एक हीरों जड़ा नौलखा हार ख़रीदा और नगर-वधु के घर की ओर चल पड़े. लेकिन रास्ते भर वे इस समस्या को निपटाने का उपाय सोचते रहे.
नगर-वधु के घर पहुँचे तो नौलखा हार का डब्बा खोलते हुए कहा, “यह तोहफ़ा उसकी ओर से जिससे तुम सबसे अधिक प्रेम करती हो.”
नगर-वधु ने फटाफट तीन नाम गिना दिए। मुनीम को आश्चर्य नहीं हुआ कि उन तीन नामों में सेठ का नाम नहीं था. निर्विकार भाव से उन्होंने कहा, “देवी, इन तीन में तो उन महानुभाव का नाम नहीं है जिन्होंने यह उपहार भिजवाया है.”
नगर-वधु की मुस्कान ग़ायब हो गई. सामने चमचमाता नौलखा हार था और उससे भारी भूल हो गई थी. उसे उपहार हाथ से जाता हुआ दिखा. उसने फ़ौरन तेरह नाम गिनवा दिए.
तेरह नाम में भी सेठ का नाम नहीं था. लेकिन इस बार मुनीम का चेहरा तमतमा गया. ग़ुस्से से उन्होंने नौलखा हार का डब्बा उठाया और खट से उसे बंद करके उठ गए. नगर-वधु गिड़गिड़ाने लगी. उसने कहा कि उससे भूल हो गई है. लेकिन मुनीम चल पड़े.
बीमार सेठ सिरहाने से टिके मुनीम के आने की प्रतीक्षा ही कर रहे थे. नगर-वधु के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे थे.
मुनीम पहुचे और हार का डब्बा सेठ के सामने पटकते हुए कहा, “लो, अपना नौलखा हार, न तुम तीन में न तेरह में. यूँ ही प्रेम का भ्रम पाले बैठे हो.”
सेठ की आँखें खुल गई थीं. इसके बाद वे कभी नगर-वधु के दर पर नहीं दिखाई पड़े.

भूमंडलीकरण और आरक्षण- २

- नयी नीतियों के लागु करने के बाद नए सरकारी उपक्रम तो नही ही लगे बल्कि पुराने धीरे धीरे बंद किये जाने लगे। सरकारी उपक्रमो का निजीकरण शुरू हो गया। VRS लागु किया गया और बडे पैमाने पर लोगो कि रोजगार से वंचित किया गया। भारत सरकार कि " आर्थिक समीक्षा २००६- २००७" के अनुसार कुल सरकारी नौकरिया ( राज्य एवम केंद्र ) १९९४ मे १ करोड़ ९४ लाख ४५ हजार थी। जो २००० मे १ करोड़ ९३ लाख १४ हजार और २००४ मे १ करोड़ ८१ लाख ९७ हजार हो गई। इससे पता लगना कठिन नही है कि भूमंडलीकरण के रोड रोलर ने "मंडल कमीशन " कि सिफारिशो को मटियामेट कर दिया।
- हालांकि १९९६ से २००४ तक कई वैचारिक रंगो कि सरकार आयी मगर किसी ने भी " वाशिंग्टन आम राय " पर विचार करने कि जहमत नही उठाई। ये किसी ने भी नही सोचा कि इसका गरीबो, आदिवासियो, दलितो और कमजोर वर्गों पर क्या असर हो रहा है।
- अब सरकार विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत मे अपनी शाखा या यु कहे कि अपनी दुकान खोलने कि अनुमति प्रदान कर रही है। इसका क्या असर होगा? इसबारे मे कोई भी सरकारी प्रयास न होने थे न हुए। ये कोशिश भी गरीब गुर्बो को शिक्षा से वंचित करने का ही प्रयास है। क्योकि इन विदेशी विश्वविद्यालयों कि फी इतनी होगी जो गरीबो कि अंटी मे होनी नही है। दुसरा यहा सिर्फ उन्ही का आरक्षण होगा जो अमीर होंगे। एक बात और हमारे यहा विदेशी चिजो कि जो माँग है उस हिसाब से देखे तो देशी विश्वविद्यालयों कि डिग्री को कोई पूछेगा ही नही।
- हमारे विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर विदेशी विश्वविद्यालयों मे मोटी रकम पर काम नही करे ऐसा कोई कानून सरकार नही बना सकती। फिर प्रतिभा पलायन कैसे रुकेगा?

भूमंडलीकरण और आरक्षण

नौकरियो और कालेज कि सीटों पर दाखिले के मामले पर हमने एक बवाल हाल मे देखा। दाखिले पर हुए बवाल के पिछे केंद्र सरकार का वो अधिनियम था जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम फैसला दिया है। कोर्ट ने केद्रिये शैक्षिक संस्थान ( प्रवेश मे आरक्षण ) अधिनियम- २००६ के लागु करने पर रोक लगा दी है।
- आरक्षण के पक्ष और विपक्ष मे जो भी दलील दी जा रही हो लेकिन इसके समर्थन और विरोध मे मे जो भी है क्या उन्होने इस नजरिये पर ध्यान दिया है कि, भूमंडलीकरण कि वजह से आरक्षण का क्या रूप बचेगा?
-भूमंडलीकरण के इस दौर मे आरक्षण किस तरह सफल हो सकता है? अभी तो सब भूमंडलीकरण कि वास्त्विक्ताओ पर कम और मनोगत भावनाओ और पुर्वाग्रहो ज्यादा हो हल्ला कर रहे है। आईये थोडा पिछे जाकर आरक्षण कि वास्तविकता पर नजर डालते है।
- आजादी के बाद संविधान ने " सामाजिक स्तर पर कमजोर वर्गों विशेषकर दलितो और आदिवासियो के लिये प्रतिबद्धता व्यक्त कि थी। संविधान मे इसके लिये विशेष प्रावधान किये गए। इसके बाद मंडल कमीशन के माध्यम से ओबीसी को आरक्षण दिया गया। १९९० के दशक मे आरक्षण कि जो राजनीती शुरू हुई उसने देश कि दशा और दिशा दोनो बदल दी। लेकिन इसे वक्त एअक और परिवर्तन हुआ जिसकी आहट सब लोगो के कान तक नही पहुची।
- यही वो दौर था जब नरसिम्हा राव सरकार ने " वॉशिंग्टन आम राय " पर आधारित भूमंडलीकरण को अपनाया। गौर करने कि बात ये है कि किसी भी दल ने इसका विरोध नही किया। " वॉशिंग्टन आम राय " के दस सूत्री कार्यक्रम के आलोक मे मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधार शुरू किया। इन सुधारो का बहुत प्रभाव पड़ा। सरकारी क्षेत्र मे उपलब्ध नौकरियों कि संख्या मे कमी आयी।

Tuesday, 19 June 2007

पिछड़ रहा है ताज


मोहब्बत का प्रतीक ताजमहल लगता है विश्व के सात महान आश्चर्यों में शामिल होने से पिछड़ जाएगा। जनता और सरकार में उदासीनता कि वजह से शायद मुहब्बत का ये अनमोल निशाँ अपनी मकबूलियत खो बैठेगा। एक निजी स्विस संगठन द्वारा दुनिया के सात नए महान आश्चर्यों के लिए विश्व स्तर पर चलाए गए मोबाइल एसएमएस और ऑनलाइन अभियान के परिणाम सात जुलाई को पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन में घोषित किए जाएंगे।
- भारत सरकार ने अभी तक इस संबंध मे कोई कदम नही उठाया है। लेकिन वहीं ब्राजील के राष्ट्रपति लूला डिसिल्वा ने राजधानी रियो द जेनेरियो के 'स्टेचू ऑफ क्राईस्ट' के लिए रेडियो पर संदेश प्रसारित कर नागरिकों से बढ़चढ़ कर वोट करने का अपील की है.
तो दूसरी ओर पेरू सरकार ने अपने प्राचीन शहर मचू पिचू के पक्ष में मतदान के लिए जगह जगह पर इंटरनेट कनेक्शन के साथ कंप्यूटर लगवाए हैं।
- हालांकि सरकार इस बारे मे जागरूकता फैलाये तो बात बन सकती है। भारत में इस समय 17 करोड़ मोबाइल धारक हैं और 50 में से एक व्यक्ति इंटरनेट इस्तेमाल करता है. लेकिन लोगों में ताज के लिए मतदान को लेकर उतना उत्साह नज़र नहीं आ रहा कि जो इसे टॉप सेवन में जगह दिला सके. हालांकि हाल में मतों का प्रतिशत 0.7 से बढ़कर 5 हुआ है जिसकी बदौलत यह अंतिम दस में जगह बना सका.
- जागरूकता का अभाव ही इसके पिछड़ने का कारण माना जा सकता है।

Saturday, 16 June 2007

जनता का राष्ट्रपति


तो भाई प्रतिभा पाटिल, UPA कि उम्मीदवार बनी है , राष्ट्रपति पद के लिये। अगर अपने आप को सबसे तेज कहने वाले आज के ज़्यादातर न्यूज़ चैनेल्स कि माने तो, मोहतरमा प्रतिभा , जनता कि उम्मीदवार नही है। आप बोलेंगे कि तो कौन है जनता का उम्मीदवार?

- कुछ दिनों पहले करीब करीब सारे न्यूज़ चैनलो ने कलाम साहब को जनता कि पसंद बताया था। कलाम साहब को दुसरा मौका मिले, ये जनता चाहती है, ऐसा कहना था इन सबसे तेज चैनलो का। और ये बात बंधु लोग पुरी तैयारी के साथ बता रहे थे। इनका कहना था कि इन्हें " आम जनता" ने SMS और online के जरिये ये बात कही है। जनता कि आवाज ये कह रही है कि, अबकी बारी फिर कलाम।

- लेकिन ऐसा कहने वाले क्या जनता कि सही आवाज है। कितने के पास आज मोबाइल और इन्टरनेट है? और जिनके पास ये दोनो है, उनमे से कितने SMS भेजते है। आम मध्य वर्ग मे भी ऐसे भी लोग जो इन सब चीजो का इस तरह इस्तेमाल नही करते। क्या इन सारे SMS को आम जनता कि आवाज मान लिया जाए। दरअसल ये एसएमएस करने वाले छोटे से मध्य वर्ग के भी छोटे से हिस्से है, और ये इन लोगो का शगल है। दुर्भाग्य से ऐसा सबकुछ मीडिया लोकतंत्र के नाम पर हमे और आपको परोस रहा है। और ये सब पहली बार नही हो रहा है। मीडिया आम लोगो को बार बार धोखा दे रहा है। शायद आप को याद होगा कि कुछ दिन पहले आरक्षण के विरोध के नाम पर जो कुछ दिल्ली कि सड़को पर हुआ उसे आरक्षण के विरूद्व आम जनता का ग़ुस्सा बताया गया। इसमे उच्च शिक्षा पा रहे सैकड़ो विद्यार्थियों ने हिस्सा लिया था।
- पिछले १५ सालो मे आर्थिक नीतियों ने हमारे महानगरो मे विकास कि जो चकाचौध पैदा कि है, विरोध कर रहे विद्यार्थी उसी को विकास मान कर ये सब कर रहे थे। खैर ये बच्चे तो नादान है, या इन्हें सही जानकारी नही होगी। लेकिन उन अर्थशास्त्रियों का क्या जो देश कि एक फीसदी आबादी कि चकाचौंध को, उनकी समृधी को देश कि समृधी मानते है। इन अर्थशास्त्रियों को देश कि ८० फीसदी फटेहाल जनता से कोई मतलब नही है। ये लोग आज भी उसी तंगहाली मे जी रहे है, जैसे आर्थिक सुधार लागु होने के वक़्त जी रहे थे। iim, iit और मेडिकल का कोर्स करने वाले विद्यार्थी नही जानते कि इस देश कि असलियत क्या है। पिछले १५ सालो मे हुई तरक्की ही इनके लिये विकास है। और इस खुशफहमी को सबसे तेज मीडिया बनाए रखना चाहता है।
- एसएमएस भेजने वाले उसे मध्यवर्ग के लोग है जो पिछले १५ सालो मे चर्बिया गए है , और अब इस देश को चलाना चाहते है। ये आम चुनाओ के दिन , छुट्टी मनाते है , और एसएमएस भेज कर प्रत्याशी को जिताते है।

Friday, 15 June 2007

अभिव्‍यक्ति की आज़ादी और भावनाओं को ठेस



लालकृष्‍ण आडवाणी का कहना है कि कलाकार की अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने की आज़ादी नहीं हो सकती। अख़बार कहते हैं कि ऐसा उनने अपने सांसदों से कहा। भाजपा को यह बात मीडिया में उजागर करनी पड़ी, क्‍योंकि कुछ अख़बारों ने मेनका गांधी की उस चिट्ठी की ख़बर छापी थी, जो उनन जंग लगे भूतपूर्व लौह पुरुष को वडोदरा में भाजपाई-विहिपाई कार्यकर्ताओं द्वारा कला प्रदर्शनी में जबरन घुस कर तोड़-फोड़ करने के खिलाफ निंदा में लिखी थी। भाजपा दुनिया को बताना चाहती है कि वडोदरा के महाराजा सयाजीराव विश्‍वविद्यालय के कला संकाय में उनके कार्यकर्ताओं ने देवी-देवताओं के 'अश्‍लील और अशोभनीय' चित्रों के खिलाफ जो कुछ किया, पार्टी उसको बुरा नहीं मानती है। इस बेशर्मी को सिद्धांतकार लालकृष्‍ण आडवाणी के उद्धरण से अलंकृत किया गया है कि कोई कलाकार अपनी अभिव्‍यक्ति की आज़ादी के बहाने हमारी धार्मिक भावनाओं को चोट नहीं पहुंचा सकता। तथाकथित धार्मिक भावनाओं के बहाने इस देश के नागरिकों को मिली बुनियादी आज़ादियों के खिलाफ संघ संप्रदायिओं की यह फासिस्‍ट मुहिम है। कैसे? एक उदाहरण लीजिए-कुछ साल पहले कथाकार कमलेश्‍वर और मुझे उज्‍जैन बुलाया गया था। वह कार्यक्रम शायद कालिदास अकादमी ने आयोजित किया था। साहित्‍य में सांप्रदायिक समरसता से निकला कोई विषय रहा होगा। कमलेश्‍वर ने बोलना शुरू किया और जैसे ही उनने बाबरी मस्जिद के तोड़े जाने का ज़‍िक्र किया, श्रोताओं में से कुछ लोग उठे और उत्तेजित होकर चिल्‍लाने लगे। उनके एतराज़ को सुनने-समझने की कोशिश की गयी, तो बात निकल कर यह आयी कि उन्‍हें 'बाबरी मस्जिद के ध्‍वंस' से आपत्ति है। वे मानते हैं कि वह 'विवादित ढांचा' था, जो ढह गया। उसे 'बाबरी मस्जिद' क्‍यों कहा जा रहा है। वे यह नहीं सुनेंगे क्‍योंकि इससे उनकी भावनाओं को चोट पहुंचती है। और कमलेश्‍वर को इसका कोई अधिकार नहीं है कि वे लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचाएं। कार्यक्रम में उपद्रव करने वाले लोगों का यह कहना मंच पर बैठे लोगों को मंज़ूर नहीं था। उनमें महेश बुच भी थे, जो कभी उज्‍जैन के कलेक्‍टर/कमिश्‍नर भी रह चुके थे। हमने उपद्रव करने वालों की यह मांग भी नहीं मानी कि कमलेश्‍वर न बोलें। बाकी के लोग बोलें तो कार्यक्रम चलने दिया जाएगा। मैंने कहा कि जिस सभा में कमलेश्‍वर को बोलने नहीं दिया जाएगा, उसमें मैं तो नहीं बोलूंगा। कोई आधे घंटे तक तनाव बना रहा।कार्यक्रम के आयोजको, बाकी के श्रोताओं और उपद्रव करने आये उन लोगों के बीच बातचीत होती रही। हल्‍ला और हंगामा भी होता रहा। कई प्रतिष्ठित नागरिक हमें घेर कर बैठे रहे और हमें मनाते रहे कि विवाद और उपद्रव ख़त्‍म हो, तो कार्यक्रम फिर शुरू किया जा सके। आख़‍िर हमें सूचित किया गया कि कमलेश्‍वर अपना भाषण पूरा करेंगे। इसके बाद उपद्रव करने वालों में से कोई एक व्‍यक्ति आकर जो कुछ उसे बोलता है, बोलेगा और फिर मुझे भाषण देना है। फिर अध्‍यक्ष को जो कुछ कहना होगा, कहेंगे। मुझे लगा कि उपद्रव से कमलेश्‍वर का उत्‍साह और बोलने की सहज इच्‍छा काफी कम हो गयी थी। वे बोले और वही सब कुछ बोले, जो उन्‍हें बोलना था। बाबरी मस्जिद के ध्‍वंस को उनने बाबरी मस्जिद को तोड़ना ही कहा। फिर उपद्रवियों में से एक सज्‍जन आये और ज़ोर-ज़ोर से भाषण देने की कला के अपने प्रशिक्षण के अनुसार बोले और उनके साथ आये लोग तालियां पीटते रहे। फिर मैं कोई घंटे भर बोला। अपने धर्म और पुराणों की समझ में ये संघ परिवारी बेचारे बिल्‍कुल एकांगी हैं। भारतीय समाज की इनकी समझ भी मुसलमान काल से पीछे नहीं जाती। अपने समाज की विविधता, बहुलता और सर्वग्राहिता इनकी पकड़ में नहीं आती। शाखाओं में जो एकांगी और जड़ ज्ञान दिया जाता है, उसी को दोहराते रहते हैं। मेरा अनुभव है कि धर्म और भारतीय समाज पर इन्‍हें लेकर इनसे बड़ी आसानी से निपटा जा सकता है। उस दिन मैंने कहा कि आपके विवादित ढांचा कहने से बाबरी मस्जिद सिर्फ एक विवाद का ढांचा नहीं हो जाएगी।
दुनिया जानती है कि 22/23 दिसंबर, सन 1949 की रात उसमें लाकर रामलला और दूसरी दो मूर्तियां रखी गयीं। ज़‍िला मजिस्‍ट्रेट नायर ने उन्‍हें मुख्‍यमंत्री गोविंद बल्‍लभ पंत के आदेश के बावजूद हटाया नहीं। हिंदू महासभा वालों ने अखंड पाठ चला कर जनता में रामलला के प्रकट होने की बात फैलायी। हज़ारों लोग इकट्ठा हुए। तबसे बाबरी मस्जिद में नमाज नहीं हुई। क्‍योंकि जहां मूर्तियां रखी हों, वहां नमाज नहीं पढ़ी जा सकती। सन 1528 में बनी बाबरी मस्जिद 1992 में आपके कहने से विवादित ढांचा नहीं हो जाएगी
- यह किस्‍सा इसलिए सुनाया कि बाबरी मस्जिद को विवादित ढांचा कहने को कमलेश्‍वर जैसे लेखक को मजबूर करने और उसके लिए 'हमारी भावनाओं को चोट पहुंचाने का' मामला सिर्फ कलाकार चंद्रमोहन और हुसैन से नहीं बनता। 'हमारी भावनाओं को चोट पहुंचाने का हल्‍ला' इसलिए मचाया जाता है कि जो हम मानते और करते हैं, आप भी वही मानिए, नहीं तो आपकी खैर नहीं है। यह मामला सिर्फ नैतिक पुलिसगिरी का भी नहीं है। यह उस जीवन पद्धति और सिर्फ उन मूल्‍यों पर हमला है, जो इस देश के लोगों ने सदियों के जीवनानुभव से विकसित किये हैं। यह हमारी सभी बुनियादी आज़ादियों पर हमला है। इसलिए महाराजा सयाजीराव विश्‍वविद्यालय के उस जगप्रसिद्ध ललित कला संकाय के अंतिम वर्ष के छात्र चंद्रमोहन की नियति को मात्र एक बेचारे कलाकार का दुर्भाग्‍य मत मानिए।
कल आप भी अपने ढंग से जीने और अभिव्‍य‍क्‍त होने के अपने मौलिक अधिकार और स्‍थान के लिए छह रात जेल में काटने को मजबूर किये जा सकते हैं।आंध्र से वडोदरा के इस प्रख्‍यात कला संकाय में चित्रकारी सीखने आये चंद्रमोहन की माली हालत नाज़ुक है, लेकिन वह प्रतिभाशाली है, इसलिए उसे दो छात्रवृत्तियां मिली हुई है, जिनने उसे यहां पहुंचाया। गये साल उसे ललित कला अकादमी का राष्‍ट्रीय पुरस्‍कार भी मिला है। इस साल परीक्षा के लिए उसने कुछ चित्र बनाये। ये चित्र कला संकाय के शिक्षकों और छात्रों के लिए थे, जो इन्‍हें देख कर और इनका आकलन करके चंद्रमोहन को नंबर और ग्रेड देते। उसका यह काम अपनी संकाय परीक्षा के लिए किया गया था और संकाय के शिक्षकों के लिए ही था। जैसे कोई छात्र अपनी परीक्षा के लिए उत्तर पुस्तिका लिखता है, वैसे ही और उसी के लिए चंद्रमोहन ने ये चित्र बनाये थे। संकाय में उनकी प्रदर्शनी भी परीक्षा और आकलन के लिए लगी थी। यह आम जनता क्‍या संकाय के बाहर विश्‍वविद्यालय के लिए भी आम प्रदर्शनी नहीं थी। क्‍या अंतिम वर्ष की परीक्षा और आकलन के लिए किये गये काम को आप सार्वजनिक स्‍थल पर आम लोगों की भावनाओं को चोट पहुंचाने वाला काम कह सकते हैं?फिर विश्‍व हिंदू परिषद के नीरज जैन अपने साथियों को लेकर उस हॉल में उपद्रव करने और कला संकाय के छात्रों और शिक्षकों से गाली गलौज और मारपीट करने कैसे पहुंच गये? उन्‍हें न सिर्फ वहां जाने और विश्‍वविद्यालय के कला संकाय के परीक्षा कार्य में कोई हस्‍तक्षेप करने का अधिकार था, न वे वहां रखे गये चित्रों पर कोई फैसला दे सकते थे। उन्‍हें वहां किसी ने बुलाया नहीं था। वह जगह आम जनता के लिए खुली नहीं थी। फिर नीरज जैन और उनके साथी वहां पहुंचे कैसे और चंद्रमोहन के चित्रों पर एतराज़ करके उन्‍हें हटाने की मांग क्‍यों करने लगे। इसलिए कि वे विश्‍व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता हैं और गुजरात में भाजपाई नरेंद्र मोदी की सरकार है? और भी मज़ा देखिए कि न सिर्फ नीरज जैन और उनके साथी वहां पहुंच गये, वहां पुलिस भी आ गयी। जैसे विश्‍व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने विश्‍वविद्यालय से इजाज़त नहीं ली थी, वैसे ही पुलिस भी बिना बुलाये, बिना पूछे आयी थी। किसी भी विश्‍वविद्यालय में यह नहीं हो सकता।लेकिन गुजरात की पुलिस ने कला संकाय में बिना इजाज़त ज़बर्दस्‍ती घुस आये और परीक्षा के लिए बनाये गये चित्रों पर एतराज़ करने और उपद्रव मचाने वाले विश्‍व हिंदू परिषद कार्यकर्ताओं के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। वह पकड़ कर ले गयी बेचारे उस चंद्रमोहन को, जिसके बनाये गये चित्रों पर इन धार्मिक और नैतिक भावनओं वाले कार्यकर्ताओं को एतराज़ था। उस पर भारतीय दंड विधान की धारा 153 ए और 295 के तहत आरोप लगाये गये। अब न तो यह एक आम जनता के लिए खुली सार्वजनिक प्रदर्शनी थी, न चंद्रमोहन ने ये चित्र सबके देखने के लिए बनाये थे। इनसे सार्वजनिक शांति और समरसता और लोगों की भावनाओं के आहत होने का सवाल कहां पैदा होता है? इनसे किसी को एतराज़ हो सकता था, तो कला संकाय के शिक्षकों और छात्रों को होना चाहिए था। लेकिन होता तो क्‍या ये लोग प्रदर्शनी में उन्‍हें रखने देते? और पुलिस के चंद्रमोहन को पकड़ कर ले जाने और प्रदर्शनी हटाने और उसके लिए जनता से माफी मांगने के कुलपति के आदेश का ऐसा विरोध करते? प्रोफेसर शिवजी पणिक्‍कर को कुलपति ने इसलिए निलंबित किया कि वे डीन थे और कुलपति के कहने पर उनने प्रदर्शनी बंद नहीं की, न उन चित्रों के लिए माफी मांगने को तैयार हुए। पणिक्‍कर अपने देश के विख्‍यात कला इतिहासकार और कला मर्मज्ञ हैं। वे और कला संकाय के छात्र चंद्रमोहन के साथ आज भी खड़े हैं।लेकिन गुजरात पुलिस ही उपद्रवियों को पकड़ने के बजाय चंद्रमोहन को पकड़ कर नहीं ले गयी, बल्कि विश्‍वविद्यालय के कुलपति मनोज सोनी भी इस सारे मामले में अपने छात्रों और शिक्षकों का साथ देने के बजाय विश्‍व हिंदू परिषद के उपद्रवियों के साथ हो गये। उनने कला संकाय में जबरन घुस आये और परीक्षा के काम में दखल देने वाले कार्यकर्ताओं के खिलाफ पुलिस में रपट तक नहीं लिखवायी। बल्कि वे संकाय को प्रदर्शनी बंद करने और डीन पणिक्‍कर से चंद्रमोहन के चित्रों के लिए सार्वजनिक माफी मांगने के आदेश दे आये। और जब पणिक्‍कर ने आदेश नहीं माने तो उन्‍हें निलंबित कर दिया। चंद्रमोहन के खिलाफ पुलिस कार्रवाई में अदालत में विश्‍वविद्यालय ने अपने छात्र का बचाव तक नहीं किया। पांच रात चंद्रमोहन जेल में बिता कर ज़मानत पर छूटा। पहली बार संघ परिवारियों ने अदालत में चंद्रमोहन की ज़मानत पर सुनवाई तक नहीं होने दी। चंद्रमोहन के पक्ष में प्रदर्शन करने आये देश भर के कलाकारों को विश्‍वविद्यालय ने अंदर आने तक नहीं दिया।आप साफ देख सकते हैं कि वडोदरा की पुलिस और महाराजा सयाजीराव विश्‍वविद्यालय के कुलपति विश्‍व हिंदू परिषद के नीरज जैन जैसे कार्यकर्ताओं के साथ खड़े हैं। और लालकृष्‍ण आडवाणी जैसे जंग लगे लौहपुरुष कह रहे हैं कि चंद्रमोहन जैसे कलाकार 'अश्‍लील और अशोभनीय' चित्र बना कर हमारी धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने के लिए स्‍वतंत्र नहीं हैं। एक विश्‍वविद्यालय के कला संकाय के छात्र ने अपनी डिग्री के लिए जो चित्र शिक्षकों के आकलन के लिए बनाये, उनसे नीरज जैन जैसे निठल्‍लों की धार्मिक भावनाएं आहत हुईं और उनने इसे राष्‍ट्रीय मामला बना दिया। कला के एक छात्र और शिक्षकों के बीच के परीक्षा कार्य में विश्‍व हिंदू परिषद, भाजपा और गुजरात सरकार का क्‍या दखल होना चाहिए? सिवाय इसके कि इनकी इच्‍छा है कि सिद्ध कलाकार ही नहीं, छात्र भी ऐसे चित्र बनाएं, जो हमारे तय किये ढांचें में फिट होते हों। जी, यही फासिस्‍ट इच्‍छा है और पता न हो तो जर्मनी और इटली के लोगों से पूछ लो।अब संघ संप्रदायी, वकील और पैरोकार कहते हैं कि यह सवाल कलाकार की सृजन स्‍वतंत्रता का नहीं, किसी के भी ईश्‍वर निंदा/धर्म निंदा करने का अपराध का है। चंद्रमोहन ने तो वे चित्र सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए नहीं बनाये थे, लेकिन मंदिर बनाने वालों ने खजुराहो, कोणार्क और भुवनेश्‍वर के मंदिर सबके और धर्म के लिए बनाये। चंद्रमोहन का एक भी चित्र इन मंदिरों की कई मूर्तियों के सामने नहीं टिकेगा। और छोड़‍िए इन मंदिरों को, और हमारे पौराणिक साहित्‍य को- कभी सोचा है अरुण जेटली, कि महादेव का ज्‍योतिर्लिंग किसका प्रतीक है और जिस पिंडी पर यह लिंग स्‍थापित किया जाता है, वह किसकी प्रतीक है। क्‍या हिंदुओं के धर्म और देवी-देवताओं को सामी और संगठित इस्‍लाम या ईसाइयत समझ रखा है, जिसमें किसी पैगंबर की मूरत बनाना वर्जित हो। थोड़ा अपना धर्म और जीवन परंपरा को समझो। यूरोप और अरब की नकल मत करो।
प्रभाष जोशी
कागद कारे, 20 मई 2007

समझौता, शांति प्रक्रिया और मुश्किलें-३



- 1994-95

चार मई 1994 को इसराइल और फ़लस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन (पीएलओ) के बीच 1993 की घोषणा को शुरुआती तौर पर लागू करने के लिए काहिरा में सहमति हुई। इस दस्तावेज़ में ग़ज़ा पट्टी के ज़्यादातर इलाक़े से इसराइली सैनिकों की वापसी का ज़िक्र था लेकिन यहूदी बस्तियों और इसके आसपास के इलाक़ों को छोड़कर. साथ में पश्चिमी तट के जेरिको शहर से भी इसराइली सैनिकों की वापसी तय हुई थी. इस मुद्दे पर बातचीत बहुत कठिन था और एक बार तो ऐसा लगा कि बातचीत पटरी से ही उतर जाएगी. 25 फरवरी को एक यहूदी ने हेब्रॉन शहर में नमाज़ अदा कर रहे मुस्लिमों पर गोलियाँ चलाई जिसमें 29 लोग मारे गए. फिर भी चार मई को समझौता हुआ. लेकिन इस समझौते में कई मुश्किलें थीं. समझौते में यह भी तय हुआ था कि अगले पाँच साल के दौरान भी चरणबद्ध वापसी होगी. इसके साथ भी और भी कई जटिल मुद्दों पर बातचीत होगी. इनमें शामिल था- फ़लस्तीनी राष्ट्र का गठन, यरुशलम की स्थिति, क़ब्ज़े वाले इलाक़ों से वापसी और लाखों फ़लस्तीनी शरणार्थियों का मसला. इस शांति प्रक्रिया के कई आलोचक थे. लेकिन उन्हें उस समय ख़ामोश होना पड़ा जब एक जुलाई को यासिर अराफ़ात ग़ज़ा में लौटे और उनका ज़बरदस्त स्वागत हुआ. इसराइली सैनिक जिन इलाक़ों से हटे थे, वहाँ फ़लस्तीनी लिबरेशन आर्मी के सैनिक तैनात किए गए और अराफ़ात फ़लस्तीनी राष्ट्रीय प्राधिकरण के नए प्रमुख बने. जनवरी 1996 में वे इस प्राधिकरण के अध्यक्ष भी निर्वाचित हुए. 1995 ग़ज़ा और जेरिको में स्वशासन के पहले साल फ़लस्तीनियों को काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. फ़लस्तीनी चरमपंथियों के बम हमले में कई इसराइली मारे गए. जबकि इसराइल ने फ़लस्तीनी स्वायत्त शासन वाले इलाक़ों की घेराबंदी करके चरमपंथियों को मारा. फ़लस्तीनी प्रशासन बड़े पैमाने पर होने वाली गिरफ़्तारियों से जूझ रहा था. इसराइल में शांति प्रक्रिया का विरोध करने वालों के पर निकल आए थे. इनमें शामिल थे दक्षिणपंथी और धार्मिक नेता. इस पृष्ठभूमि में शांति प्रक्रिया में देरी स्वभाविक थी और जो समयसीमा तय हुई थी, उसमें बहुत कुछ नहीं हो पाया. लेकिन सितंबर में एक बार फिर आशा की किरण नज़र आई और ओस्लो-2 समझौता हुआ. मिस्र के ताबा शहर में इस समझौते पर सहमति हुई. इस समझौते के तहत पश्चिमी तट को तीन हिस्सों में बाँटा गया- ज़ोन-ए में फ़लस्तीनी शहर हेब्रॉन और पूर्वी येरूशलम को छोड़कर सात फ़ीसदी हिस्सा था. तय हुआ कि यह हिस्सा पूर्ण रूप से फ़लस्तीनियों के नियंत्रण में चला जाएगा. ज़ोन-बी में बात हुई इसराइल और फ़लस्तीन के साझा नियंत्रण की और ये हिस्सा पूरे इलाक़े का 21 फ़ीसदी था. ज़ोन-सी में वे इलाक़े थे, जो पूरी तरह इसराइल के नियंत्रण में रहते. इसराइल ने फ़लस्तीनी क़ैदियों को छोड़ने पर रज़ामंदी दे दी. ओस्लो-2 समझौते का फ़लस्तीनियों ने कम ही स्वागत किया. दूसरी ओर इसराइल के दक्षिणपंथी नेता इस बात से नाराज़ थे कि इसराइली ज़मीन को फ़लस्तीनियों को क्यों दिया जा रहा है. तत्कालीन इसराइली प्रधानमंत्री इत्ज़ाक राबिन के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त अभियान चल रहा था और इसी अभियान के दौरान एक यहूदी कट्टरपंथी ने चार नवंबर को उनकी हत्या कर दी. इसराइली प्रधानमंत्री की हत्या से दुनिया स्तब्ध थी. राबिन की हत्या के बाद कमान मिली उदारवादी नेता शिमॉन पेरेज़ को.
- 1996-99
1996 के शुरू में एक बार फिर हिंसा की लहर उठी. इसराइल में कई आत्मघाती धमाके हुए और इसके पीछे था फ़लस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास. साथ में इसराइल की बदले की कार्रवाई, जिसके तहत उसने लेबनान में तीन हफ़्ते तक बमबारी की. 29 मई को उदारवादी शिमॉन पेरेज़ चुनाव हार गए हालाँकि अंतर कम था. इस बार कमान मिली दक्षिणीपंथी बेन्यामिन नेतन्याहू. नेतन्याहू ने चुनाव प्रचार में ओस्लो शांति समझौते का विरोध किया था और शांति समझौते के साथ-साथ सुरक्षा पर ज़ोर दिया था. नेतन्याहू के एक फ़ैसले ने अरब जगत को नाराज़ कर दिया और माहौल तनावपूर्ण हो गया. नेतन्याहू ने क़ब्ज़े वाले इलाक़ों में निर्माण पर लगी पाबंदी हटा ली. साथ ही येरूशलम के अल अक़्सा मस्जिद परिसर के नीचे से गुजरने वाली एक पुरातात्त्विक सुरंग को भी खोल दिया. लेकिन शांति प्रक्रिया पर विरोध के बावजूद जनवरी 1997 में नेतन्याहू को अमरीकी दबाव में हेब्रॉन का 80 फ़ीसदी हिस्सा छोड़ना पड़ा. 23 नवंबर 1998 को वाई नदी सहमति पत्र पर हस्ताक्षर हुए. जिसमें पश्चिमी तट के कई इलाक़ों से वापसी की बात कही गई थी. लेकिन वाई समझौते को लागू करने को लेकर नेतन्याहू की दक्षिणपंथी सरकार जनवरी, 1999 में गिर गई. एक बार फिर सत्ता लेबर पार्टी के हाथ गई, जिसकी अगुआई इस बार कर रहे थे एहुद बराक. उन्होंने वादा किया था कि वे अरबों के साथ 100 वर्षों से चल रहे संघर्ष को एक साल में ख़त्म कर देंगे. आस्लो समझौते के तहत आख़िरी प्रस्ताव के लिए पाँच साल की जो अंतरिम अवधि तय की गई थी, वह चार मई 1999 को ख़त्म हो गई. लेकिन यासिर अराफ़ात को इस बात पर मना लिया गया कि वे फ़लस्तीनी राष्ट्र की एकतरफ़ा घोषणा को टाल दें ताकि नए प्रशासन से बातचीत का रास्ता खुले.
- 2000-01
एहुद बराक की सरकार के सत्ता संभालने के कारण शांति प्रक्रिया को लेकर काफ़ी आशा बँधी थी लेकिन यह अपेक्षा सही साबित नहीं हो पाई। सितंबर 1999 में एक नयी वाई नदी संधि पर हस्ताक्षर हुआ. लेकिन वापसी पर आख़िरी समझौता नहीं हो पाया. इनके साथ और भी कई मुद्दे विवादित थे, जिनमें शामिल था- येरूशलम, शरणार्थियों का मामला, यहूदी बस्तियाँ और सीमाएँ. प्रधानमंत्री बराक सीरिया के साथ समझौते को लेकर काफ़ी गंभीर थे, लेकिन इस दिशा में भी उन्हें नाकामी ही हाथ लगी. हालाँकि वे इस वादे को पूरा करने में सफल रहे कि इसराइल लेबनान में 21 वर्षों से जारी संघर्ष को ख़त्म करेगा. मई 2000 में इसराइली सेना लेबनान से वापस हट गई. इसके बाद एक बार फिर यासिर अराफ़ात के क़दमों पर सबका ध्यान था. अराफ़ात पर बराक के साथ-साथ अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का भी दबाव था, जो चाहते थे कि अराफ़ात फुटकर में समझौता न करें बल्कि एक पूर्ण समझौता हो. इसी पहल के तहत कैंप डेविड में बातचीत शुरू हुई. दो सप्ताह तक बातचीत चली लेकिन उसका कोई फ़ायदा नहीं हो पाया. इस बातचीत में विवादित मुद्दे थे येरूशलम की स्थिति और फ़लस्तीनी शरणार्थियों का मामला. अस्थिरता के उसी दौर में लिकुड पार्टी की कमान संभाल चुके अरियल शेरॉन ने 28 सितंबर को येरूशलम स्थित अल अक़्सा मस्जिद/टेम्पल माउंट परिसर का दौरा किया. शेरॉन के विरोधियों ने इसे आग में घी डालने वाला क़दम बताया. इसके बाद फ़लस्तीनियों की ओर से विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. जिसे अल अक़्सा इंतिफ़ादा का नाम दिया गया. 2001 2000 के आख़िर तक इसराइली प्रधानमंत्री एहुद बराक की मुश्किलें बढ़ती जा रही थी. इंतिफ़ादा के दौरान ग़ज़ा और पश्चिमी तट में हिंसा की घटनाओं में भी खूब बढ़ोत्तरी हुई. गठबंधन टूटता देख प्रधानमंत्री बराक ने 10 दिसंबर को इस्तीफ़ा दे दिया और संकट के हल के लिए नए चुनावों की घोषणा कर दी. छह फरवरी 2001 को हुए चुनाव में अरियल शेरॉन की लिकुड पार्टी भारी मतों से जीती. सत्ता संभालते ही शेरॉन ने 1990 के दशक के सभी शांति समझौतों के प्रति मुँह मोड़ लिया और फ़लस्तीनी समस्या के प्रति कड़ा रुख़ अपनाया. फ़लस्तीनी चरमपंथियों के ख़िलाफ़ शेरॉन ने कड़ी कार्रवाई की और उनके ठिकानों पर हवाई हमले किए. साथ ही फ़लस्तीनियों के इलाक़े में घुस कर कई कार्रवाई हुई. इसके जवाब में फ़लस्तीनी चरमपंथियों ने भी इसराइली शहरों पर आत्मघाती हमले किए. अमरीका के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने इस हिंसा के माहौल को ख़त्म करने की कोशिश की. विशेष दूत जॉर्ज मिचेल ने हिंसा की बढ़ती घटनाओं के कारणों की परख की जबकि अमरीकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए जॉर्ज टेनेट ने संघर्ष विराम के लिए प्रयास किए. लेकिन इन कोशिशों का भी नतीजा नहीं निकला और हिंसा जारी रही.
- 2002-03
2002 के शुरू में हिंसा की नयी लहर आई। मार्च और जून में इसराइल ने लगभग पूरे पश्चिमी तट पर क़ब्ज़ा कर लिया. उस साल फ़लस्तीनी शहरों पर लगातार हमले होते रहे. कई बार उनका संपर्क बाक़ी के शहरों से टूट गया, तो कई बार वहाँ कर्फ़्यू जैसा माहौल रहा. अप्रैल में इसराइली सैनिकों ने पश्चिमी तट के शहर जेनिन के शरणार्थी शिविर पर क़ब्ज़ा कर लिया. फ़लस्तीनियों ने दावा किया कि उनका जनसंहार किया जा रहा है. बड़ी संख्या में इसराइली सैनिक भी मारे गए. इसराइली सैनिकों ने दावा किया कि उन्हें कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. इसराइल का कहना था कि इस कार्रवाई में सिर्फ़ 52 फ़लस्तीनी मारे गए. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में दोनों पक्षों की आलोचना की गई. लेकिन रिपोर्ट में स्पष्ट किया गया कि जनसंहार जैसी कोई बात नहीं थी. हालाँकि मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने अपनी रिपोर्ट में इसका ज़िक्र किया कि इसराइली सैनिकों ने जेनिन और नबलुस में कार्रवाई के दौरान युद्ध अपराध किया है. मई में बेथलेहम के चर्च ऑफ़ नेटिविटी में छह हफ़्ते तक चली घेराबंदी उस समय ख़त्म हुई जब 13 फ़लस्तीनी चरपंथियों को देशनिकाला दे दिया गया. इस शहर में जैसे ही इसराइली सैनिक घुसे, बड़ी संख्या में फ़लस्तीनियों ने इस चर्च में पनाह ले ली. इसराइली अधिकारियों ने कहा कि वर्ष 2002 के दौरान हुई कार्रवाई का मकसद था फ़लस्तीनी इलाक़ों से चरमपंथियों के ठिकानों को ख़त्म करना. सालों भर आत्मघाती हमले तो हुए लेकिन कम संख्या में. अगले साल भी शांति प्रक्रिया ठंडे बस्ते में ही पड़ी रही. अमरीका, रूस, संयुक्त राष्ट्र और यूरोपीय संघ ने इसे दोबारा शुरू करने की कोशिश की. इस बार इसका नाम दिया गया- रोडमैप. 2002 में इस दस्तावेज़ के अंशों पर विवाद के कारण इसे जारी करने में देरी हुई. इस बीच इराक़ युद्ध के कारण इस प्रक्रिया में भी रुकावट आ गई. लेकिन अप्रैल 2003 में रोडमैप नाम का यह दस्तावेज़ प्रकाशित हुआ. जून में राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने मध्य-पूर्व पर लंबा-चौड़ा भाषण दिया. उन्होंने फ़लस्तीनियों से अपील की कि वे नए नेता का चयन करें, जो आतंकवाद से समझौता न करे.
- 2003-06
नवंबर 2004 में फ़लस्तीनी नेता यासिर अराफ़ात का पेरिस के अस्पताल में निधन हो गया जहाँ उन्हें 29 अक्तूबर को भर्ती किया गया था. यासिर अराफ़ात को पश्चिमी तट के शहर रामल्ला में मार्बल और पत्थर से बनी एक क़ब्र में दफ़नाया गया. अराफ़ात की क़ब्र में यरूशलम की अल अक़्सा मस्जिद की मिट्टी भी मिलाई गई. उनका शव एक ऐसे ताबूत में रखकर दफ़नाया गया जिसे ज़रूरत पड़ने पर सुरक्षित निकाला जा सके. फ़लस्तीनियों का कहना है कि उनको उम्मीद है कि कभी भविष्य में उनके ताबूत को यरूशलम ले जाने की इजाज़त मिली तो वे अराफ़ात का शव निकालकर उन्हें यरूशलम में दफ़न कर सकेंगे. अराफ़ात के निधन के बाद वर्ष 2005 के शुरू में फ़लस्तीनी राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव हुए जिसमें महमूद अब्बास को बड़े अंतर से जीत मिली. फ़लस्तीनी चरमपंथी संगठन हमास ने चुनाव का बहिष्कार किया था. महमूद अब्बास को आधिकारिक नतीजों के अनुसार करीब 62.3 प्रतिशत वोट मिल थे जबकि अब्बास के मुख्य प्रतिद्वंद्वी मुस्तफ़ा बरग़ूती को सिर्फ़ 19.8 फ़ीसदी मत मिले. जीतने के बाद महमूद अब्बास ने इसराइल के साथ शांति वार्ता बहाल करने की अपील की. लेकिन चुनाव के बाद फ़लस्तीनी चरमपंथी संगठनों की गतिविधियाँ तेज़ हो गईं. लेकिन फ़रवरी में महमूद अब्बास, हमास और इस्लामिक जेहाद को अस्थायी संघर्षविराम पर राज़ी करवाने में कामयाब हो गए. मिस्र में हुए एक सम्मेलन में अरियल शेरॉन और महमूद अब्बास ने संघर्षविराम की घोषणा कर दी लेकिन चरपपंथी संगठनों ने आधिकारिक तौर पर संघर्षविराम की बात नहीं की. इसके बाद ग़ज़ा से यहूद बस्तियाँ हटाने के फ़ैसले के बाद शांति प्रकिया में अहम मोड़ आया. इसराइली सेना ने अगस्त में गज़ा पट्टी की सभी 21 यहूदी बस्तियों को हटाने का काम शुरू लिया. बस्तियों में रहने वाले यहूदी लोगों ने बस्तियाँ खाली करवाने की योजना का पुरज़ोर विरोध किया और कई जगह भावुक दृश्य देखने को मिले. अरियल शेरॉन ने ग़ज़ा में सैनिकों के काम की तारीफ़ की और कहा कि ये एक दर्दनाक स्थिति है. नवंबर 2005 में अरियल शेरॉन ने सत्ताधारी लिकुड पार्टी छोड़ने की घोषणा की और राष्ट्रपति से मिलकर संसद भंग करके जल्द चुनाव कराने की सिफ़ारिश कर दी. शेरॉन ने कदिमा नाम की अपनी नई पार्टी बना ली. वहीं जनवरी 2006 में फ़लस्तीनी संसदीय चुनाव के लिए भी तैयारी शुरू हो गई. 2006 के शुरू में इसराइल के प्रधानमंत्री अरियल शेरॉन को दिमाग़ की नस फटने के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया. उनकी हालत लगातार गंभीर बनी हुई है और इसराइली नेता एहुद ओलमार्ट उनकी जगह कार्यवाहक प्रधानमंत्री के तौर पर काम कर रहे हैं.

अरब और यहूदियों के बीच संघर्ष - २





- 1947-48

1920 से फ़लस्तीन पर शासन कर रहे ब्रिटेन ने ज़ायनिस्ट-अरब विवाद को सुलझाने की ज़िम्मेदारी 1947 में संयुक्त राष्ट्र को सौंप दी. इलाक़े में हिंसा फैल गई. अरब और यहूदियों के बीच संघर्ष होने लगा. उस समय तक यहूदी आबादी का एक तिहाई हो गए थे. स्थिति नाज़ी जर्मनी में यहूदी के साथ होने वाले बर्ताव के कारण और ख़राब हो गई. लाखों यहूदी यूरोप से दर-बदर हो गए. माना जाता है कि दूसरे विश्व युद्ध के समय होलोकॉस्ट में 60 लाख यहूदी मारे गए. संयुक्त राष्ट्र ने इस मामले पर एक विशेष समिति का गठन किया जिसने अलग-अलग यहूदी और फ़लस्तीनी राज्य के गठन की सिफ़ारिश की. फ़लस्तीनी प्रतिनिधियों ने इस सिफ़ारिश को नामंज़ूर कर दिया जबकि यहूदी पक्ष ने इसे स्वीकार कर लिया. विभाजन योजना के अनुसार यहूदियों को फ़लस्तीन का 56.47 फ़ीसदी इलाक़ा देने की बात कही गई. जबकि अरब राज्य के लिए 43.53 प्रतिशत इलाक़ा देने का प्रस्ताव था. जबकि येरूशलम की अंतरराष्ट्रीय घेरेबंदी की बात कही गई. 29 नवंबर 1947 को संयुक्त राष्ट्र महासभा में 33 देशों ने विभाजन योजना के पक्ष में मतदान किया. 13 देशों ने इसके ख़िलाफ़ मतदान किया जबकि 10 देशों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया. फ़लस्तीनियों ने इस योजना को पहले ही नामंज़ूर कर दिया था और इसे कभी लागू भी नहीं किया जा सका. इस बीच ब्रिटेन ने घोषणा की कि वह 15 मई 1948 को फ़लस्तीन से हट जाएगा. लेकिन इस तारीख़ से पहले ही हिंसा भड़क उठी. संघर्ष में ब्रितानी सैनिक भी मारे गए. इस कारण फ़लस्तीन में ब्रिटेन की उपस्थिति पर ब्रिटेन में काफ़ी विरोध हुआ. इसके अलावा अमरीका के दवाब में ब्रिटेन इस बात पर भी तैयार हो गया कि वहाँ और यहूदी लोगों को आने दिया जाए. यह ज़ायनिस्ट के प्रति अमरीका के बढ़ते समर्थन का भी संकेत था. अरब और यहूदी- दोनों पक्षों ने संघर्ष की तैयारी के लिए सेना का गठन शुरू किया. इस दिशा में पहला क़दम यहूदियों ने उठाया जब फ़लस्तीनियों को गाँव से निकालने के लिए अभियान चलाया गया. 1948 14 मई 1948 को दोपहर चार बजे तेल अवीव में इसराइल के गठन की घोषणा की गई. यह क़रीब 2000 वर्षों में पहला यहूदी राष्ट्र था. यह घोषणा अगले दिन कार्यरूप में आई जब ब्रिटेन की आख़िरी सैनिक टुकड़ी वहाँ से हटी. फ़लस्तीनी 15 मई का दिन 'आपदा' के रूप में याद करते हैं. इस साल की शुरुआत हुई थी अरब और यहूदी सैनिकों के एक-दूसरे के ख़िलाफ़ नियंत्रण वाले इलाक़े में हमला करके. इरगुन और लेही चरमपंथी गुटों के सहयोग से यहूदी सैनिकों ने यहूदी राष्ट्र के लिए तय इलाक़ों पर तो नियंत्रण किया ही साथ में फ़लस्तीनियों के कुछ इलाक़ों पर भी क़ब्ज़ा कर लिया. नौ अप्रैल को येरूशलम के निकट डेयर यासीन नामक गाँव में कई लोगों की हत्या कर दी. इस जनसंहार की ख़बर फैलते ही फ़लस्तीनियों में डर फैल गया और लाखों की संख्या में फ़लस्तीनी मिस्र, लेबनॉन और आज के पश्चिमी तट के इलाक़ों की ओर भाग गए. यहूदी सैनिक नेगेव, गैलिली, पश्चिमी येरूशलम और तटीय मैदानी इलाक़ों में विजयी रहे. इसराइली राष्ट्र की घोषणा के बाद जॉर्डन, मिस्र, लेबनॉन, सीरिया और इराक़ के अरब सैनिकों ने हाथ मिलाया और इसराइल पर हमला कर दिया. लेकिन इसराइली सेना ने इस हमले को नाकाम कर दिया. संघर्ष विराम के बाद इसराइली सीमा क़रीब-क़रीब उन हिस्सों तक फैल गई जो ब्रितानी शासन के अधीन फ़लस्तीनी इलाक़े थे. मिस्र को गज़ा पट्टी मिल गई जबकि जॉर्डन ने पूर्वी येरूशलम और आज के पश्चिमी तट के इलाक़ों को अपने में मिला लिया. यह ब्रितानी शासन वाले फ़लस्तीन का लगभग 25 प्रतिशत हिस्सा था।
- 1964-67

1948 से इसराइल के पड़ोसी अरब देशों में इस बात की प्रतिद्वंद्विता बढ़ गई थी कि कौन देश इसराइली राष्ट्र के गठन के ख़िलाफ़ अरब देशों का नेतृत्व करेगा. इस प्रतिद्वंद्विता के बीच फ़लस्तीनी मूक दर्शक बन गए. जनवरी 1964 में अरब देशों ने फ़लस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन (पीएलओ) का गठन किया. अरब देश ऐसा फ़लस्तीनी संगठन चाहते थे जो उनके नियंत्रण में रहे. लेकिन फ़लस्तीनी एक स्वतंत्र संगठन चाहते थे. यही लक्ष्य था फ़लस्तीनी नेता यासिर अराफ़ात का जिन्होंने 1969 में पीएलओ की अध्यक्षता संभाली. पाँच साल पहले गुप्त रूप से गठित उनका संगठन फ़तह इसराइल के ख़िलाफ़ सशस्त्र अभियान के कारण कुख्यात हो रहा था. 1968 में जॉर्डन के कारामेह में फ़तह ने बड़ी संख्या में इसराइली सैनिकों को हताहत किया. 1967 इसराइल और उसके पड़ोसी अरब देशों के बीच बढ़ते तनाव का नतीजा था 5 जून 1967 को शुरू हुआ युद्ध. युद्ध सिर्फ़ छह दिन चला और 11 जून को ख़त्म हो गया. लेकिन इसने मध्यपूर्व के संघर्ष का चेहरा बदल दिया. इसराइल ने दक्षिण में मिस्र से गज़ा और सिनई को छीन लिया. जबकि उत्तर में उसने सीरिया से गोलान की पहाड़ी छीन ली. इसराइल ने पश्चिमी तट और पूर्वी येरूशलम से जॉर्डन के सैनिकों को भगा दिया. पहले ही दिन मिस्र की शक्तिशाली वायु सेना को इसराइल ने ध्वस्त कर दिया. दरअसल इसराइली जेट विमानों ने बमबारी करके मिस्र के विमानों को नष्ट कर दिया. इस युद्ध के बाद इसराइल को मिले इलाक़ों से इसराइल का क्षेत्रफल और बढ़ गया. इस युद्ध में जीत से इसराइल और उसके समर्थकों का आत्मविश्वास बढ़ गया. लेकिन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव संख्या 242 पारित किया और ज़ोर देकर कहा कि युद्ध के बल पर हासिल इलाक़े को मान्यता नहीं दी जाएगी. इसराइल से अपील की गई कि वह युद्ध के बाद हथियाए गए इलाक़ों को ख़ाली कर दे. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक़ इस युद्ध के कारण क़रीब पाँच लाख फ़लस्तीनी दर-बदर हो गए और उन्होंने मिस्र, लेबनान, सीरिया और जॉर्डन में पनाह ली.
- 1973-77

जब सीरिया और मिस्र राजनयिक कोशिशों के माध्यम से 1967 के युद्ध के दौरान हारी हुई अपनी ज़मीन वापस न पा सके तो उन्होंने इसराइल पर हमला कर दिया। उन्होंने इसराइल पर हमला किया उनके महत्वपूर्ण पर्व यॉम किपूर पर ये हमला किया गया. ये संघर्ष रमज़ान युद्ध के रूप में भी जाना जाता है. शुरू में मिस्र और सीरिया सिनई और गोलान पहाड़ी इलाक़े में आगे बढ़े. लेकिन तीन हफ़्ते तक चली लड़ाई के बाद उन्हें पीछे हटना पड़ा. उल्टे इसराइल ने 1967 के युद्ध के बाद के अपने इलाक़े में थोड़ा और विस्तार कर लिया. इसराइली सैनिक गोलान पहाड़ी से आगे भी सीरिया के क्षेत्र में घुस गए हालाँकि बाद में उन्होंने कुछ इलाक़े वापस कर दिए. मिस्र में भी इसराइली सैनिकों ने कई इलाक़ों पर फिर से नियंत्रण कर लिया और स्वेज़ नहर के पश्चिमी हिस्सों की ओर भी बढ़ गए. अमरीका, सोवियत संघ और संयुक्त राष्ट्र- सभी ने कूटनीतिक कोशिश करके युद्धविराम समझौता कराने की कोशिश की. इस युद्ध में सीरिया और मिस्र के कुल साढ़े आठ हज़ार सैनिक मारे गए जबकि 6000 इसराइली सैनिक भी युद्ध के दौरान मारे गए. इस युद्ध के बाद सैनिक, कूटनीतिक और आर्थिक समर्थन के लिए इसराइल अमरीका पर ज़्यादा निर्भर हो गया. युद्ध के कुछ ही समय बाद सऊदी अरब ने उन देशों को पेट्रोलियम पदार्थ देने पर रोक लगा दी, जिन्होंने इसराइल का समर्थन किया था. इस प्रतिबंध के कारण पेट्रोल की क़ीमतों में काफ़ी बढ़ोतरी हुई और दुनियाभर में ईंधन की कमी हो गई. यह स्थिति मार्च 1974 तक रही. अक्तूबर 1973 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने प्रस्ताव 338 पारित किया. इस प्रस्ताव के तहत युद्ध में शामिल सभी देशों से अपील की गई कि वे अपनी सैनिक गतिविधियाँ तुरंत बंद कर दें और मध्य पूर्व में स्थायी शांति के लिए आपस में बातचीत करें. 1974 1970 के दशक में यासिर अराफ़ात के नेतृत्व में पीएलओ के गुट और अबू निदाल जैसे अन्य फ़लस्तीनी चरमपंथी गुटों ने इसराइल और अन्य ठिकानों पर हमले किए. ऐसा ही एक हमला 1972 के म्यूनिख ओलंपिक के दौरान हुआ जिसमें 11 इसराइली एथलीट मारे गए. हालाँकि पीएलओ फ़लस्तीन की आज़ादी के लिए सशस्त्र संघर्ष की बात करता था, लेकिन 1974 में यासिर अराफ़ात आश्चर्यजनक रूप से संयुक्त राष्ट्र में आए और शांतिपूर्ण समाधान की बात कही. उन्होंने ज़ायनिस्ट योजना की आलोचना की और कहा, "आज मैं एक हाथ में जैतून की टहनी (शांति का प्रतीक चिह्न) और दूसरे हाथ में बंदूक लेकर यहाँ आया हूँ. आप मेरे हाथ से इस जैतून की टहनी को गिरन न दें." अपने स्वतंत्र राष्ट्र की मांग कर रहे फ़लस्तीनियों के लिए अंतरराष्ट्रीय समर्थन की दिशा में यासिर अराफ़ात के भाषण को काफ़ी महत्वपूर्ण माना जाता है. एक साल बाद तत्कालीन अमरीकी विदेश मंत्रायल के अधिकारी हेरॉल्ड सौन्डर्स ने पहली बार स्वीकार किया कि अरब-इसराइल शांति वार्ता में फ़लस्तीनी अरबों की जायज़ मांगों का भी ध्यान रखा जाए. 1977 उग्रवादी इरगुनी और लेही ग्रुप की भले ही एक स्वतंत्र इसराइली राष्ट्र के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका रही हो लेकिन हेरत पार्टी (बाद में लिकुद पार्टी) में उनके उत्तराधिकारी 1977 तक चुनाव नहीं जीत पाए. उस समय तक इसराइली राजनीति में वामपंथी विचारधारा वाले लेबर पार्टी का वर्चस्व था. लिकुद पार्टी की विचारधारा में शामिल था इसराइली राष्ट्र का विस्तार करना और इसे ब्रितानी फ़लस्तीन जितना फैला लेना. साथ में उनका लक्ष्य यह भी था कि जॉर्डन के कुछ हिस्सों पर भी क़ब्ज़ा किया जाए और बाइबिल में जिस इसराइल का वर्णन है, उसका गठन किया जाए. पूर्व इरगुन नेता मेनाचेम बेगिन की अगुआई वाली नयी सरकार ने पश्चिमी तट और गज़ा में यहूदी बस्तियाँ बसाने के लिए गतिविधियाँ तेज़ कर दी. उस समय के कृषि मंत्री अरियल शेरॉन ने इस अभियान का नेतृत्व किया.
- 1979-82

मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादात ने इसराइल की यात्रा करके सारी दुनिया को सन्न कर दिया। इतना ही नहीं उन्होंने 19 नवंबर 1977 को येरूशलम में इसराइली संसद को भी संबोधित किया. सादात पहले ऐसे अरब नेता बने जिन्होंने इसराइल को मान्यता दी. सितंबर 1978 में मिस्र और इसराइल ने कैम्प डेविड समझौते पर दस्तख़त किए. इस समझौते में मध्य पूर्व में शांति की रूपरेखा खींची गई. समझौते में फ़लस्तीनियों को सीमित स्वायत्तता देने की भी बात थी. छह महीने बाद मार्च 1979 में मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादात और इसराइल के प्रधानमंत्री मेनाचेम बेगिन ने द्विपक्षीय समझौते पर भी हस्ताक्षर किए. 1967 के युद्ध के बाद इसराइल ने सिनई पर क़ब्ज़ा कर लिया था, उसे मिस्र को लौटा दिया गया. मिस्र की इसराइल के साथ संधि और बातचीत के कारण अरब देशों ने मिस्र का बहिष्कार कर दिया. मिस्र की सेना में इस्लामी तत्त्वों ने 1981 में सादात की हत्या कर दी. ये लोग इसराइल के साथ शांति के विरोधी थे. 1982 1982 की गर्मियों में इसराइली सेना ने लेबनान पर हमला कर दिया. पीस फ़ॉर गैलिली नाम की इस कार्रवाई का उद्देश्य था इसराइल की उत्तरी सीमा से लगे फ़लस्तीनी गुरिल्ला ठिकाने को ख़त्म करना. लेकिन उस समय इसराइल के रक्षा मंत्री अरियल शेरॉन के इशारे पर इसराइली सैनिक बेरूत तक पहुँच गए और पीएलओ को वहाँ से खदेड़ दिया. इसराइल ने 6 जून को हमला किया. दरअसल लंदन में इसराइली दूत श्लोमो आर्गोव पर हुए हमले के कारण इसराइल ने हमला शुरू किया. इस हमले में फ़लस्तीनी चरमपंथी गुट अबू निदाल का हाथ था. इसराइली सैनिक अगस्त में बेरूत पहुँचे. युद्धविराम समझौते के बाद पीएलओ को लेबनान से निकाल दिया गया. सितंबर में बेरूत में इसराइली सैनिक भी मौजूद थे. उसी समय क्रिश्चियन फलांगे के नेता बशीर गेमायल उनके मुख्यालय पर हुए बम हमले में मारे गए. अगले ही दिन इसराइली सेना ने पश्चिमी बेरूत पर क़ब्ज़ा कर लिया. 16 से 18 सितंबर तक फाल्गनिस्टों ने सैकड़ों फ़लस्तीनियों की हत्या की. फाल्गनिस्ट इसराइल से मिले हुए थे. साबरा और शातिला शरणार्थी शिविर में ये ख़ूनी खेल हुआ. 1983 में इस घटना की जाँच में यह पाया गया कि रक्षा मंत्री अरियल शेरॉन यह संहार रोकने में नाकाम रहे थे. इस कारण शेरॉन ने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया.
-1987-88
इसराइली क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ जन आंदोलन यानी इंतिफ़ादा पहले गज़ा में शुरू हुआ और जल्द ही पश्चिमी तट में भी फैल गया. आंदोलन में नागरिक अवज्ञा, हड़ताल, इसराइली सामानों का बहिष्कार किया गया. लेकिन इसराइली सैनिकों पर पत्थरबाज़ी की घटना के कारण दुनिया का ध्यान इस पर गया. इसराइली सैनिकों ने इसका जवाब दिया और बड़ी संख्या में फ़लस्तीनी मारे गए. 1993 तक चले इस संघर्ष में एक हज़ार से ज़्यादा लोग मारे गए. 1988 अपनी सैनिक शक्ति के बावजूद इसराइल 1987 में शुरू हुए इंतिफ़ादा को रोकने में नाकाम रहा. इसराइली क़ब्ज़े में रहने वाले सभी फ़लस्तीनियों ने इस इंतिफ़ादा का समर्थन किया. 1982 में लेबनान से निकाले जाने के बाद पीएलओ ट्यूनीशिया से काम कर रहा था. इंतिफ़ादा के शुरू होने से फ़लस्तीनी क्रांति में अपनी मुख्य भूमिका के प्रति संगठन को ख़तरा लगने लगा. क्योंकि इंतिफ़ादा के कारण सबका ध्यान इसराइल के क़ब्ज़े वाले इलाक़े पर चला गया. निर्वासन में अपने को फ़लस्तीनी सरकार कहने वाले फ़लस्तीनी राष्ट्रीय परिषद ने नवंबर 1988 में अल्जीरिया में बैठक बुलाई. इस बैठक में संयुक्त राष्ट्र के 1947 के दो राष्ट्र के सिद्धांत के पक्ष में मतदान हुआ. बैठक में आतंकवाद की निंदा की गई और प्रस्ताव संख्या 242 के आधार पर बातचीत से मसला सुलझाने की वकालत भी की गई. अमरीका ने भी पीएलओ के साथ बातचीत शुरू कर दी. लेकिन इसराइल अपनी इस बात पर डटा रहा कि पीएलओ एक आतंकवादी संगठन है. जिसके साथ वो बातचीत नहीं करेगा. इसके बदले इसराइली प्रधानमंत्री इत्ज़ाक शमीर ने स्वशासन के मुद्दे पर समझौते से पहले क़ब्ज़े वाले इलाक़े में चुनाव का प्रस्ताव रखा.
- 1991-93
1991 का खाड़ी युद्ध पीएलओ और उसके नेता यासिर अराफ़ात के लिए बहुत बड़ा संकट साबित हुआ. इराक़ का समर्थन करने के कारण पीएलओ को खाड़ी में अपने धनाढ़्य समर्थकों से हाथ धोना पड़ा. कुवैत को इराक़ी क़ब्ज़े से छुड़ाने के बाद अमरीकी प्रशासन ने मध्य पूर्व में शांति प्रक्रिया पर ध्यान देना शुरू किया. इस प्रक्रिया ने वित्तीय रूप से कमज़ोर और राजनीति रूप से अलग-थलग पड़ चुके यासिर अराफ़ात का भी ध्यान खींचा. लेकिन इससे इसराइल के कट्टरवादी प्रधानमंत्री इत्ज़ाक शमीर ज़्यादा प्रभावित नहीं हुए. अमरीकी विदेश मंत्री जेम्स बेकर ने इलाक़े की कई बार यात्रा की और मैड्रिड में अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के लिए ज़मीन तैयार की. सीरिया ने भी इस बैठक में हिस्सा लेने पर सहमति जताई इस उम्मीद में कि इसमें गोलान पहाड़ी लौटाने पर भी बातचीत होगी. जॉर्डन ने भी सम्मेलन में आने का न्यौता स्वीकार कर लिया. लेकिन शमीर ने पीएलओ से सीधे बात करने से इनकार कर दिया. इसके बाद जॉर्डन और फ़लस्तीनियों का संयुक्त प्रतिनिधिमंडल तैयार हुआ जिसमें पीएलओ से कोई नहीं था. सम्मेलन से कुछ दिन पहले वॉशिंगटन ने क़ब्ज़े वाले इलाक़े में बस्तियाँ बसाने को लेकर इसराइल की 10 अरब डॉलर की कर्ज़ गारंटी को रोक दिया. 30 अक्तूबर को शुरू हुए इस सम्मेलन पर दुनियाभर की नज़र थी. सम्मेलन में शामिल हुए प्रत्येक देशों को अपनी बात रखने के लिए 45 मिनट का समय दिया गया. फ़लस्तीनियों ने इसराइल के साथ भविष्य पर अपनी बात रखी. इसराइली प्रधानमंत्री शमीर ने यहूदी राष्ट्र के अस्तित्त्व को सही ठहराया. जबकि सीरिया के विदेश मंत्री फ़ारूक़ अल शारा ने शमीर के 'आतंकवादी' अतीत पर सवाल उठाए. इस सम्मेलन के बाद अमरीका ने इसराइल और सीरिया के साथ अलग से द्विपक्षीय बातचीत भी कराई. जॉर्डन-फ़लस्तीनी प्रतिनिधिमंडल से भी द्विपक्षीय बात हुई. 1993 जून 1992 में इत्ज़ाक राबिन की अगुआई में वामपंथी सरकार के गठन के बाद 1990 के दशक के मध्य में इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच शांति की कई बार कोशिश तो हुई लेकिन आवेश में. सरकार में राबिन को कट्टरपंथी माना जाता था तो शिमॉन पेरेज़ और योसी बेईलिन को अपेक्षाकृत उदारवादी समझा जाता था. फ़लस्तीनी लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन (पीएलओ) भी शांति प्रक्रिया के लिए उतावला दिख रहा था क्योंकि खाड़ी युद्ध के बाद उसकी स्थिति थोड़ी कमज़ोर हुई थी. वाशिंगटन में होने वाली द्विपक्षीय बातचीत के लिए इसराइल ने पीएलवो के प्रतिनिधियों पर से प्रतिबंध हटा लिया. इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण बात ये थी कि इसराइली विदेश मंत्री पेरेज़ और उनके सहयोगी मंत्री बेईलिन ने नॉर्वे की मध्यस्थता से गुप्त रूप से बातचीत के लिए भी कोशिश की. वाशिंगटन में हो रही द्विपक्षीय वार्ता का कोई नतीजा निकलता नहीं दिख रहा था. इसी कारण गुप्त रूप से चलने वाली ओस्लो वार्ता 20 जनवरी 1993 को शुरू हुई. नॉर्व के शहर सार्प्सबर्ग में हुई इस बातचीत में आश्चर्यजनक रूप से प्रगति हुई. इसराइली क़ब्ज़े को चरणबद्ध तरीक़े से ख़त्म करने के बदले फ़लस्तीनी इसराइल को एक राष्ट्र के रूप में मान्यता दे- इस पर काफ़ी विचार-विमर्श हुआ. बातचीत के बाद ऐतिहासिक घोषणापत्र पर दस्तख़त हुए और दुनियाभर ने व्हाइट हाउस के लॉन में राबिन और यासिर अराफ़ात को हाथ मिलाते देखा.

'गज़ा पर हमास का पूरा नियंत्रण'




पिछले छह दिनों तक चले भीषण संघर्ष के बाद गज़ा पर हमास के लड़ाकों का नियंत्रण हो गया है। हालांकि हमास और फ़तह गुटों को फ़लस्तीनी साझा सरकार में होना चाहिए लेकिन दोनों लड़ रहे हैं और इस संघर्ष मे करीब १०० लोग मारे जा चुके है।
- गुरुवार को दिन भर चली कार्रवाई में हमास ने फ़तह के सुरक्षा मुख्यालय पर कब्ज़ा कर लिया और इसके बाद उन्होंने 'गज़ा की आज़ादी' की घोषणा की. इस घोषणा के बाद इस बात कि आशंका व्यक्त कि जा रही है कि , अब गज़ा और पश्चिमी तट अलग-अलग हो जाएँगे।
आइये पहले बात करते है हमास कि --------
- 1987 में गठित यह संगठन फ़लस्तीनी क्षेत्रों से इसराइली सेना को हटाने के लिए लगातार संघर्ष चलाता रहा है.
हमास इसराइल को मान्यता नहीं देता और यह पूरे फ़लस्तीनी क्षेत्र में इस्लामी राष्ट्र की स्थापना करना चाहता है.

- हमास की स्थापना में धार्मिक नेता शेख़ यासीन अहमद की अहम भूमिका रही थी और उन्हें ही हमास के लोग आध्यात्मिक नेता और प्रेरणा स्रोत मानते रहे थे।
- हमास की एक हथियारबंद इकाई है और दूसरी राजनीतिक इकाई.
राजनीतिक इकाई ने पश्चिमी किनारे और ग़ज़ा पट्टी में अस्पताल और स्कूल बनवाए हैं और यह स्थानीय लोगों की सामाजिक और धार्मिक मामलों में सहायता करती है.
हमास की सशस्त्र इकाई इसराइली ठिकानों पर हमले करती है.
- सितंबर 2000 में दूसरे इंतफ़दा की शुरूआत के बाद से हमास ने इसराइली क्षेत्रों में कई आत्मघाती हमले किए हैं।
- हमास ग़ज़ा पट्टी में ख़ासा लोकप्रिय है, जहाँ पश्चिमी तट की तुलना में ग़रीबी अधिक है.
-----मध्य पूर्व --------
----इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच चलने वाला संघर्ष दुनिया में सबसे ज़्यादा ख़तरनाक और लंबे समय तक चलने वाली लड़ाई है. इस संघर्ष की जड़ में है ज़मीन पर ऐतिहासिक दावा जो भूमध्यसागर और जॉर्डन सागर के पूर्वी तटीय इलाक़े में पड़ता है. पिछले 100 वर्षों के दौरान फ़लस्तीनियों के सामने उपनिवेशवाद का दौर आया, फिर उन्हें उस इलाक़े से खदेड़ा गया और फिर क़ब्ज़ा कर लिया गया. उसके बाद शुरू हुई एक ऐसे देश के साथ रहने की मुश्किलें जिसे वे अपनी समस्याओं और नुक़सान के लिए ज़िम्मेदार मानते हैं. इसराइल के यहूदी लोगों के लिए उनके पूर्वजों की ज़मीन तो उन्हें मिली लेकिन सालों तक कष्ट झेलने के बाद. इसके बाद भी शांति और सुरक्षा की समस्या बनी हुई है. उन्हें कई बार संकटों का सामना करना पड़ा जब पड़ोसी देशों ने उनके देश को नक्शे पर से मिटाने की कोशिश की.
-- ईसा पूर्व 1250- 638 ईस्वी

प्राचीन काल के इतिहास में इसका वर्णन है कि इसराइल और फ़लस्तीनी प्रशासन के इलाक़े की ज़मीन कई बार जीती गई। प्राचीन इसराइल के बारे में जानकारी धुँधली है. जो भी जानकारी है वह है बाइबिल की पहली पुस्तकों और ऐतिहासिक साहित्यों में. बाइबिल के अनुसार जानकारी ईसापूर्व 1250- इसराइलियों ने पूर्वी भूमध्यसागर के तटीय इलाक़े में स्थित कनान को जीतना शुरू किया और वहाँ बसना भी शुरू किया. ईसापूर्व 961-922- राजा सोलोमन का शासन और येरूशलम में उपासना स्थल का निर्माण. सोलोमन के शासन के बाद उनका साम्राज्य दो हिस्सों में बँट गया. ईसापूर्व 586- दक्षिणी साम्राज्य जूडा पर बेबीलोन ने हमला किया और जीत लिया. यहूदी वहाँ से खदेड़ दिए गए और सोलोमन का मंदिर तोड़ दिया गया. 70 सालों के बाद यहूदियों ने वापस लौटना शुरू किया और धीरे-धीरे येरूशलम को फिर से बसाना शुरू किया और मंदिर का भी फिर से निर्माण किया गया. ऐतिहासिक काल ईसापूर्व 333- सिकंदर महान ने इस इलाक़े को जीता और यह इलाक़ा ग्रीक शासन के अंतर्गत आ गया. ईसापूर्व 165- जूडिया में विद्रोह के बाद प्राचीन काल के आख़िरी स्वतंत्र यहूदी राज्य का गठन हुआ. ईसापूर्व 63- यहूदी राज्य जूडिया रोमन साम्राज्य के फ़लस्तीन प्रांत में मिल गया. 70 ईस्वी- रोमन साम्राज्य के ख़िलाफ़ बग़ावत हुई लेकिन राजा टिटियस ने इसे कुचल दिया और दूसरे उपासना स्थल को भी तोड़ दिया गया. इसी के बाद यहूदियों के बिखराव की शुरुआत हुई. 118-138 ईस्वी- रोमन राजा हेड्रियन के शासनकाल के शुरू में यहूदियों को येरूशलम लौटने की अनुमति दी गई लेकिन 133 ईस्वी में यहूदियों के दूसरे विद्रोह के कारण शहर को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया. लोगों को वहाँ से निकाल दिया गया और ग़ुलाम के रूप में बेच दिया गया. 638 ईस्वी- अरब मुस्लिमों ने बैज़ेन्टाइन शासन का ख़ात्मा किया. बैज़ेन्टाइन साम्राज्य पूर्व में रोमन साम्राज्य के बाद स्थापित हुआ था. इस्लाम के द्वितीय खलीफ़ा उमर ने उस जगह पर एक मस्जिद बनवाई जहाँ आज अल अक़्सा मस्जिद है. इसके बाद 20वीं शताब्दी में आटोमन साम्राज्य के पतन तक इस इलाक़े में ज़्यादातर समय मुसलमानों का ही शासन रहा.
- पहला ज़ायनिस्ट काँग्रेस 1897 में पहला ज़ायनिस्ट काँग्रेस स्विट्ज़रलैंड के बैज़ल में हुआ. बैठक का मक़सद था 1896 में आई थियोडोर हर्ल्ज़ की क़िताब द जेविश स्टेट पर विचार-विमर्श करना जिसमें यहूदी राज्य के गठन की कल्पना की गई थी. हर्ल्ज़ एक यहूदी पत्रकार और लेखक थे और वियना में रहते थे. वे चाहते थे कि यहूदी का अपना राष्ट्र हो. उनकी इस सोच का शुरुआती कारण था यूरोप का यहूदी विरोधी रुख़. इस काँग्रेस में बैज़ल प्रोग्राम जारी किया गया. इसमें कहा गया कि फ़लस्तीन में यहूदी लोगों के लिए घर बनाया जाए और इसे क़ानून के माध्यम से संरक्षण दिया जाए. इस दिशा में काम करने के लिए इस काँग्रेस में विश्व ज़ायनिस्ट संगठन का गठन किया गया. 1897 के पहले ही कुछ ज़ायनिस्ट इस इलाक़े में पहुँचना शुरू हो गए थे. 1903 तक वहाँ 25,000 ज़ायनिस्ट इकट्ठा हो गए थे जिनमें से ज़्यादातर पूर्वी यूरोप से आए थे. उस समय वह इलाक़ा आटोमन साम्राज्य का हिस्सा था और क़रीब पाँच लाख अरबों के साथ ज़ायनिस्ट भी रहने लगे. 1904 और 1914 के बीच और 40 हज़ार अप्रवासी वहाँ पहुँच गए. 1917 पहले विश्व युद्ध के दौरान इस इलाक़े पर तुर्की के आटोमन साम्राज्य का शासन था. इस इलाक़े से तुर्की का नियंत्रण उस समय ख़त्म हुआ जब ब्रिटेन के सहयोग से अरबों ने आटोमन साम्राज्य को ख़त्म कर दिया. 1918 में विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटेन ने इस इलाक़े पर नियंत्रण कर लिया. 25 अप्रैल 1920 को लीग ऑफ़ नेशंस ने उस इलाक़े में ब्रितानी शासन को मान्यता दे दी. बदलाव के इस दौर में तीन महत्वपूर्ण वादे किए गए थे. 1916 में मिस्र में ब्रितानी उपायुक्त सर हेनरी मैकमोहन ने अरब नेताओं से वादा किया था कि विश्व युद्ध के बाद पूर्व आटोमन साम्राज्यों के प्रांतों को स्वतंत्र कर दिया जाएगा. लेकिन उसी समय ब्रिटेन और फ़्रांस ने आपस में एक और संधि कर रखी थी जिसके तहत ये प्रावधान था कि दोनों देश इलाक़े को बाँट लेंगे. 1917 में ब्रिटेन के विदेश मंत्री ऑर्थर बैलफ़ोर ने वादा किया कि ब्रिटेन फ़लस्तीन में यहूदी लोगों के लिए बस्ती बनाने की दिशा में काम करेगा. बैलफ़ोर ने शीर्ष ज़ायनिस्ट नेता लॉर्ड रॉट्सचाइल्ड को पत्र लिखकर ये वादा किया था. बाद में यह बैलफ़ोर घोषणापत्र के रूप में जाना गया.
- 1929-36

-1920 और 1930 के दशक की ज़ायनिस्ट योजनाओं के कारण लाखों यहूदी ब्रितानी क़ब्ज़े वाले फ़लस्तीन क्षेत्र में आ गए। इसके कारण अरब समुदाय में रोष पैदा होने लगा. 1922 की एक ब्रितानी जनगणना के मुताबिक़ फ़लस्तीन की सात लाख 50 हज़ार की आबादी में यहूदियों की आबादी क़रीब 11 फ़ीसदी बढ़ गई. अगले 15 सालों में तीन लाख से ज़्यादा यहूदी इस इलाक़े में पहुँचे. 1929 में अरब और ज़ायनिस्ट लोगों के बीच बढ़ती दूरी ख़ूनी संघर्ष में बदल गई. संघर्ष में फ़लस्तीनियों ने 133 यहूदियों को मार डाला जबकि 110 फ़लस्तीन ब्रितानी पुलिस के हाथों मारे गए. 1936 में अरब लोगों का ग़ुस्सा एक बार फिर भड़का और हड़ताल के दौरान व्यापाक अवज्ञा आंदोलन शुरू हो गया. उस समय चरमपंथी ज़ायनिस्ट ग्रुप इरगुन ज़वई लूमी ने फ़लस्तीनियों और ब्रितानी ठिकानों पर हमले की योजना बनाना शुरू कर दिया था. मक़सद था फ़लस्तीन और मौजूदा जॉर्डन को आज़ाद कराना. जुलाई 1937 में ब्रिटेन ने एक शाही आयोग का गठन किया जिसकी अगुआई की भारतीय मामलों के पूर्व विदेश सचिव लॉर्ड पील. इस आयोग ने इलाक़े को दो हिस्सों में बाँटने की सिफ़ारिश की. एक यहूदी राज्य और एक अरब राज्य. फ़लस्तीनी और अरब प्रतिनिधियों ने इसे अस्वीकार कर दिया. उन्होंने बड़ी संख्या में आ रहे यहूदियों पर रोक लगाने की मांग की. उनकी एक और मांग थी कि देश को बाँटा न जाए और एकीकृत देश में अल्पसंख्यकों के अधिकारों को सुरक्षा दी जाए. ब्रितानी आयोग की सिफ़ारिश का हिंसात्मक विरोध 1938 तक जारी रहा. बाद में ब्रिटेन ने बलपूर्वक इस विरोध को कुचल दिया.

Thursday, 14 June 2007

क्या से क्या हो गया

कभी पश्चिम बंगाल की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहे जाने वाले चाय उद्योग में बीते कुछ वर्षों से मंदी और तालाबंदी का जो दौर शुरू हुआ है उसने इन बागानों के मजदूरों को असमय ही लीलना शुरू कर दिया है. उत्तर बंगाल के जलपाईगुड़ी ज़िले में रहीमाबाद चाय बागान दो साल से बंद है, यहाँ काम करने वाले सुखिया का परिवार भरपेट भोजन और साफ पानी के लिए मोहताज है। जीवन की बाकी सुविधाओं की कौन कहे।
- इन बागानों मे काम करने वाले मजदूरों का हाल जानते है उन्ही कि जुबानी ।
- "कभी इस बागान की हरी पत्तियाँ सोना उगलती थीं लेकिन इनके सूखने के साथ ही हमारी ज़िंदगियाँ भी सूखने लगी हैं. मेरी पाँच पुश्तें यही काम करते-करते खप गईं लेकिन अब लगता है कि बेरोज़गारी और भूख के कारण मेरी भी जान चली जाएगी."
यह कहते हुए सुखिया उराँव की आँखें भर आती हैं.
- राज्य सरकार के स्वास्थ्य विभाग और एक गैर-सरकारी संगठन की ओर से कराए गए एक सर्वेक्षण में इस बात का पता चला है कि इलाक़े में अरसे से बंद 14 चाय बागानों में पिछले साल पहली जनवरी से इस साल 31 मार्च यानी 15 महीनों के दौरान 571 मज़दूरों की मौत हो गई है.
राज्य सरकार इन मौतों की वजह तरह-तरह की बीमारियों को बताती है जबकि ग़ैर सरकारी संगठनों का कहना है कि इन मौतों की असली वजह भूख और कुपोषण है।
- इन सब के बावजूद हमारी सरकारो को कोई फर्क नही पड़ता। हमारी अर्थवय्वस्था दहाई का अंक छूने वाली है। इन खबरो को कोई नही सबके सामने लाने कि कोशिश करेगा। शायद सच सबके लिये मूड खराब करने वाला ही होता है। क्या आप के लिये भी सच ऐसा ही है।

Wednesday, 13 June 2007

कौन बनेगा राष्ट्रपति

राष्ट्रपति बनने के लिए मारामारी शुरू हो चुकी है। ये पहला मौका नही है जब राष्ट्रपति पद के लिये इतनी राजनीती हो रही है। वीवी गिरी और संजीवा रेड्ड़ी के बीच 1969 की राष्ट्रपति पद की चुनावी होड़ के बाद शायद अब पहली बार ये चुनाव चर्चा का विषय बना है।
-हालत ये है कि अगर आप किसी बाज़ार या नुक्कड़ में आम जनता के बीच भी ये सवाल पूछें तो सभी राष्ट्रपति कैसा हो इस पर अपनी राय व्यक्त करते नज़र आते हैं.
शायद जनता के राष्ट्रपति या पीपुल्स प्रेसीडेंट के नाम से पहचाने जाने वाले राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल क़लाम, राष्ट्रपति के पद को छोटे-बड़े सभी के मानस पटल तक पहुँचाने में सफल हुए हैं।
- यूपीए और वाम दलों के पास ५.2 लाख मत हैं, एनडीए के पास 3.5 लाख और अन्य क्षेत्रीय दलों के पास 1.2 लाख मत हैं.
- आम जनता तो एक बार फिर अब्दुल कलाम को इस पद पर देखना चाहती है। लेकिन राजनीती मे हर बार वो नही होता जो आम जनता चाहती है। यहाँ २२ फीसदी वोट वाला दल इसे जनसमर्थन कह कर राज करता है। खैर राष्ट्रपति के चुनाव मे बहुमत का राज चलता है। इसे आम सहमती कहा जाता है। तो आप किसे चाहते है आपना राष्ट्रपति? मैं चाहता हु कि भारत का राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद कि तरह केंद्र का चाकर ना हो कर , संविधान और हिंदुस्तानी जनता का प्रतिनिधि हो । शायद आप भी कुछ ऐसा ही चाहते होंगे।

Monday, 11 June 2007

यौन शिक्षा- २

हिंदुस्तान का कानून १८ साल कि उम्र मे सरकार चुनने का अधिकार देता है। तो क्या इस उम्र तक यौन शिक्षा देने कि जरुरत नही है? इस उम्र मे एक आम लडकी कि शादी हो जाती है। तो क्या ऐसे मे ये जरुरी नही है कि उसे पहले ही दाम्पत्य जीवन कि जरूरतो और सावधानियों कि जानकारी दे दी जाये।
- IPC के अनुसार १६ साल कि उम्र होने के बाद कोई भी लडकी यौन संबंध कायम कर सकती है। इस उम्र के पहले अगर उससे यौन संबंध कायम किया जता है तो वो बलात्कार कि कानूनी परिभाषा के अंतर्गत माना जाएगा। लेकिन १६ साल कि उम्र के बाद किसी लडकी का आपसी सहमती से किया गया यौन संबंध बलात्कार नही माना जाता। ऐसे मे क्या ये जरुरी नही हो जाता कि इस उम्र मे पहुचने से पहले ही उसे - पूर्व या विवाह्हेतेर यौन संबंधो से उत्पन्न परिस्थितियों का ज्ञान हो - और ऐसा बिना यौन जानकारी के हो सकना संभव नही है।
- यहाँ एक बात गौर करने कि है कि यौन भावना और यौन जानकारी का आपस मे कोई संबंध है कि नही। बहुतो का कहना है कि यौन जानकारी बच्चो मे गलत भावनाओ को उभारेगी। ये भारतीय संस्कृति को दूषित करेगी। लेकिन यौन जानकारी के बिना भी यौनेक्छा तो उपजेगी ही , और तब इसे समझना और संयमित करना और भी मुश्किल होगा। क्योकि चोरी छुपे हासिल कि गई जानकारी कैसे होगी ये कल्पना से बाहर है।
- कई बार ये भी कहा जाता है कि इस सब के बारे मे बच्चो को बडे लोगो से जानकारी सहज ही मिल जति है। लेकिन हमारा तथाकथिक पढा लिखा वर्ग भी यौन समस्यायों के बारे मे कितनी गलत जानकारिया रखता है, ये किसी से छिपा नही है।
- माहवारी आने पर कपड़ा बाँध लेने कि बात ही यौन शिक्षा तक सीमित नही है। हमारा महिला समाज अपनी देह को सुंदर दिखाने मे जितनी रूचि लेता , उसका चौथाई भी अगर शरीर कि समस्यायों को समझने मे लेता तो कई ऐसे बीमारियों से अपने को बचा सकता है जो बाद मे जानलेवा साबित होती है। इसलिये पुरुषो कि तुलना मे महिलाओ को तो यौन जानकारी देने कि और भी जरुरत है।
- एक बात ये भी है कि यौन शिक्षा का जो विरोध हो रहा है, उसके पिछे भी पुरुषवादी मानसिकता ही ज्यादा काम करती है। कुछ महिलाओ का भी मानना है कि लड़कियों को यौन जान्करिया देना , उन्हें केवल उपभोग कि सामग्री नही रहने देगा। ऐसे समाजो मे जहा बहुसंख्यक महिलाओ को "organism" के अनुभव का पता न हो , यौन शिक्षा देना पुरुष प्रभुत्व के लिये चुनौती भी बन सकता है। गौर करने कि बात है कि यौन शिक्षा का विरोध सिर्फ भारत मे ही नही बल्कि विदेशो मे जिनमे यूरोप और मध्य पूर्व के साथ अफ्रीकी देशो मे भी हो रहा है। और तो और अफ्रीकी मुल्को मे तो लड़कियों का "सुन्नत " भी किया जाता है , ताकी उन्हें ताजिंदगी यौन सुख का पता ही ना चल सके। चरित्रवान बनाए रखने का ये काम किया जाता ताकी वे अपने पुरुषो कि उपभोग कि सामग्री बनी रहे, और बच्चे जनती रहे। भारत मे तो अपने शरीर और मन कि बनावट और उन्हें कई तरह के ख़तरे से बचाने के लिये हिंदुस्तानी महिलाये तो क्या पुरुष भी मामूली जानकारी नही रखते।
- यौन जानकारी देने वाली शिक्षा न केवल खुद मे आत्मविश्वास लाती है, बल्कि इससे सामाजिक स्वास्थ्य भी बेहतर होता है।

Saturday, 9 June 2007

नक्सलवाद का सफाया या कम्पनियों के लिये रास्ता बनाने के साजिश

नक्सलवाद से सबसे ज़्यादा प्रभावित राज्य छत्तीसगढ़ में पुलिस ने पीयूसीएल के एक पदाधिकारी को गिरफ़्तार कर लिया है.
डॉ विनायक सेन पर आरोप है कि वे कथित रुप नक्सलियों की मदद कर रहे थे.
उनकी गिरफ़्तारी के बाद मानों पूरे देश में खलबली सी मची हुई है। कुल मिलाकर दिखता है कि देश के बौद्धिक और नागरिक समाज की अनुवाई करने वालों का एक बड़ा हिस्सा इन गिरफ़्तारियों के ख़िलाफ़ खड़ा है।
सरकारी आँकड़ा बताता है कि उसी छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर इलाक़े में पिछले दो साल में पाँच सौ से अधिक आदिवासियों की मौत हो चुकी है.या तो वे नक्सलियों के हाथों मारे गए हैं या फिर नक्सली होने के शक में पुलिस के हाथों मारे गए हैं.
सरकार ही बताती है कि पचास हज़ार से ज़्यादा आदिवासियों को उनके गाँवों से उजाड़कर सड़कों के किनारे कैंपों में लाकर रखा गया है. वह भी ऐसे कैंपों में जहाँ नक्सली जब चाहते हैं, हमला कर देते हैं. हज़ारों लोग पड़ोस के राज्यों आँध्रप्रदेश, महाराष्ट्र और उड़ीसा में पलायन कर गए हैं और कठिन जीवन गुज़ार रहे हैं. न कैंपों में रह रहे आदिवासियों की सुध लेने की किसी को मोहलत है और न पलायन कर गए आदिवासियों का हाल पूछने की फ़ुर्सत किसी को है.
- क्या इस मारा मारी मे इस बात का ख़्याल किया गया कि सलवा जुडूम शुरू होने के बाद छत्तीसगढ़ मे बहुत सी कम्पनिया आ रही है। इन कम्पनियों को ना नक्सल समर्थक और ना नक्सल विरोधी ही नुकसान पहुँचा रहे है। क्या ये सब राज्य मे उद्योग को फैलाने के लिए तो नही किया जा रहा। इसे कौन साबित करेगा कि उद्योगों के लिए बिछाई जा रही लाल कालीन , आदिवासियों के खून से सुर्ख नही है।

ये मधुशाला है या ---

प्रेस क्लब मे छत्तीसगढ़ शासन कि तरफ से एक मीटिंग थी। मुझे अभी छत्तीसगढ़ कि बीट मिली हुई है, इसलिये वह जाने का शरफ हासिल हुआ। पत्रकारिता कि पढाई के दौरान हमने प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के बारे मे काफी बाते कि थी। वह क्लब जैसा है। वहा नामी पत्रकार आते है। गम्भीर मुद्दों पर बातचीत होती है, बहस , मुबाहसे का दौर चलता है।
- यही सब सोचते हुए कैब से क्लब पहुँचा। अन्दर शराबखाने जैसा सीन था। जैसा फिल्मो मे नजर आता है वैसा ही यहाँ भी नजर आया। छोटे छोटे गोल मेज पर नामी गिरामी सहाफी बैठे थे। मेज पर तरह कि बोतले बोतले रखी थी। एक दो लोग पी कर इस तरह झूम रहे थे जैसे बार मे हो और सुरूर मे मदहोश हो गए हो। किसी तरह बचते बचाते बगल वाले कमरे मे गया। वही प्रेस कांफ्रेस होने वाली थी। रूम चारो तरफ से बंद था, और एसी खराब था। हेलिकॉप्टर जैसे आवाज करने वाला एक पंखा पुरी ताकत लगा कर शोर मचा रहा था।
- खैर मैंने अपना काम पुरा किया। और फिर उन मेजो से बचते बचाते वापस बाहर आ गया।
- एक नया सच आखो के सामने आया। खैर अभी तो शुरुआत है, इस तरह के न जाने कितने सच से रूबरू होने का मौका मिलेगा। तब तक इसी तरह बया होंगी ज़माने कि हक़ीकत।

Thursday, 7 June 2007

यौन शिक्षा

भारत के सभी राज्यों मे यौन शिक्षा का विरोध हो रहा है। ये विरोध कुछ अजीब है। ये सब कुछ यौन शिक्षा के सिलेबस, नामकरण, और सुचानाओ को लेकर नही है। विरोधियो का मानना है कि इस विषय कि जरुरत ही नही है, क्योकि ये संस्कृति के विरूद्व है।
- संस्कृति का मतलब है , अपने आप को जानने का प्रयास करना। और इस अपने को जानने मे अपनी देह और उससे सम्बंधित कामनाओ और प्रक्रियाओ को जानना भी शामिल है। क्योकि उसको जाने बिना उस आत्मा को भी नही जाना जा सकता जो देह मे बसी है। और उसी कि प्रक्रियाओ के माध्यम से उसका अतिक्रमण भी भावनात्मक स्तर पर तो कर ही सकता है। जब हम brahamcharya या वासनाओ को जीतने कि बात करते है तब वह उन्हें और उनकी प्रक्रियाओ को जाने बिना नही किया जा सकता। योग और आसन आदि बदन के जरिये से आत्मा को सिद्ध करने कि प्रक्रिया है। इसलिये जो लोग शिक्षा मे एक ओर तो ध्यान , योग, प्राणायाम आदि के समर्थक है क्योकि उनसे न सिर्फ देह स्वस्थ रहती है, बल्कि अपनी इन्द्रियों और कामनाओ पर नियंत्रण रखा जा सकता है। वही लोग जब संस्कृति के नाम पर इन इन्द्रियों और उनसे सम्बंधित कामनाओ को समझाने वाली शिक्षा का न केवल विरोध करते है बल्कि उत्तेजना और उग्र आंदोलन करते है तो इसे सांस्कृतिक पाखंड ही कहा जा सकता है।

एक रिपोर्ट - ३

भाई लोग रिपोर्ट सौपी गई, और सिफरिशे दी गई। आप लोगो को किसने बता दिया कि रिज़र्वेशन कि सिफारिश कि गई है। हिंदुस्तान मे खुद को पिछड़ा बताने के लिए कौन लोग किस हद तक जा सकते है , ये आप लोगो ने भी कुछ दिन पहले देखा होगा। अल्पसंख्यक लोगो ने अपने लिये इतनी जोर और धमक के साथ पिछड़ा बनने के लिये हल्ला नही मचाया है।
- धर्म के नाम आरक्षण नही, भीख और चन्दा माँगा जाता है। और धर्म के नाम पर आरक्षण हो नही सकता क्योकि ये संविधान के खिलाफ है।
- डेनमार्क वाले क्या कर रहे है इससे मुझे मतलब नही है। कभी अजंता, अलोरा जाये, सच्चाई पता चल जाएगी।
- आरक्षण पाये डाक्टर से अपने बच्चो का इलाज करुंगा या नही अभी नही बता सकता, क्योकि अभी अकेला हु। लेकिन आप उन डॉक्टर के बारे मे क्या कहेंगे जो साऊथ से पैसे के बल पर डिग्री लेते है। हिंदुस्तान मे मेडिकल colleges मे प्रायवेट सीटे ज्यादा है, बनिस्पत, सरकारी के।
- रिज़र्वेशन किसी समस्या का समाधान नही है। जरुरत है हर एक को बराबर सुविधाये देने कि। क्या हिंदुस्तान मे हर शख्स को ये नसीब है। अगर नही तो क्या इलाज है , बंधु लोग बताये।
- धन्यवाद

Wednesday, 6 June 2007

एक रिपोर्ट - २

संजय जी ने मेरे " एक रिपोर्ट " के कालम पर अपना मत ये दिया है कि , " अल्पसंख्यक होने की क्या कीमत चाहिये? "
- कीमत किसने मांगी है? और जो कीमत अल्प्संखयक दे रहे है, उसका कौन हिसाब देगा। मरीजो कि सेवा करने वाले " ग्राहम स्टेंस " को अपने बच्चो के साथ सिर्फ इस लिये जला दिया गया कि वो अल्प्संखयक थे।
- गुजरात का हिसाब, तो राम लीला मंडली दे ही चुकी है।
- हिंदुस्तान का एक अजीम फनकार आज अमेरिका और दुबई मे छुपा है। उस पर इल्जाम है कि उसने देवी देवताओ कि नंगी तस्वीरे बनाईं है। मान लिया कि उनकी तस्वीरो से किसी कि भावनाओ को ठेस पहुंची। लेकिन उसका क्या जो राजस्थान मे हुआ। आडवानी, जोशी, और अटल, ब्रह्मा, विष्णु और महेश बने। वसुंधरा , दुर्गा बन गई। उनके चमचे लोग , कुबेर और इंद्र बने। तब किसी भाई कि भावना को क्यो नही ठेस पहुंची।
- गुंडे लोग धर्म के ठेकेदार बन कर , कलाकारो पर जुल्म कर रहे है। इसका हिसाब कौन देगा?

Monday, 4 June 2007

एक रिपोर्ट

हाल ही मे National Commission for Religions and Linguistic Minorities (NCRLM) ने अल्प्संख्य्को से सम्बंधित एक रिपोर्ट सरकार को सौपी है। हालाकि ये अभी तक सार्वजनिक नही हुई है है। लेकिन इसमे भारत मे अल्प्संख्य्को कि स्थिति के बारे मे बताया गया है। और इसमे सुधार लाने के लिये सिफरिशे कि गयी है। जैसा कि हमेशा से होता आया है , इस पर राजनीती शुरू हो गई है।

- जरा एक नजर उन लफ्जो पर जिसके तहत संविधान ने अल्प्संख्य्को कि परिभाषा दी है।
---Minority as a group numerically inferior to the rest of the population in a non-dominant position.
- परिभाषा के हिसाब से तो हिन्दुओ के अलावा भारत मे रहने वाले बाकी सभी धर्मो के लोग अल्पसंख्यक है। हिन्दुओ कि आबादी कुल जनसंख्या का ८० फीसदी है। ऐसे मे ये राज्य कि जिम्मेदारी है कि वो अल्प्संख्य्को कि तरक्की के लिये नियम बनाए।
- भारत का संविधान भी अल्प्संखय्को कि तरक्की के लिये पर्याप्त आजादी देता है। Article १६(४), Article 30, राज्यों को ये अख्तियार देता है कि वो इन लोगो के विकास के लिये योजनाये बनाए। लेकिन इसका उल्टा हो रह है।
- जब भी अल्प्संखय्को के विकास कि बात होती है तो " रामलीला मंडली " BJP को राजनीती करने का मौका मिल जाता है। सच्चर समिति कि रिपोर्ट पर इस मंडली ने कितना हो हल्ला मचाया था ये किसी से छुपा नही है। UP के election के समय CD का खेल सभी ने देखा था। जो दल सिर्फ वोट लेने के लिये समूची कौम को गद्दार बनाने पर तुली है , वो क्या क्या कर सकती है ये वक्त वक्त पर नजर आता ही रहता है।

Saturday, 2 June 2007

आरक्षण कि सनक


हमारे गूजर भाई लोग अपने को दलित और पस्मान्दा बनाने पर तुले हुए है। ऐसा दुसरे मुल्को मे नही होता। लेकिन हमारे यहा हर कोई अपने को अविकसित बता कर आरक्षण चाहता है। आख़िर क्या वजह है कि आरक्षण कि मलाई हर कोई चाहता है।
- कहीं तो गूजर कहते हैं कि वे राजपूत हैं फिर वे अनूसूचित जनजाति का दर्जा क्यों चाहते हैं?
- जबकि किसी भी समाज के लिए आरक्षण सभी चीजों का समाधान नहीं है।गूजरों को आरक्षण का लाभ पहले से ही ओबीसी कोटे के तहत मिला हुआ है. गूजर संतुष्ट क्यों नहीं हैं, इसके पीछे क्या कारण हैं. बहस इस बात पर नहीं होनी चाहिए कि गू‍जरों की आरक्षण की मांग जायज़ है अथवा नजायज़ पर अपनी मांगों हेतु गू‍जर समुदाय द्वारा जो तरीका अपनाया गया है वह शर्मनाक है. ये कितना ख़राब है कि समाज में ऊपर उठने के बज़ाए लोग पिछड़ा घोषित होने की लड़ाई लड़ रहे हैं.
- आइये जरा नजर डालते है गुजरो के इतिहास पर-----------
- प्राचीन इतिहास के जानकारों के अनुसार गूजर मध्य एशिया के कॉकेशस क्षेत्र ( अभी के आर्मेनिया और जॉर्जिया) से आए थे लेकिन इसी इलाक़े से आए आर्यों से अलग थे.
कुछ इतिहासकार इन्हें हूणों का वंशज भी मानते हैं.
भारत में आने के बाद कई वर्षों तक ये योद्धा रहे और छठी सदी के बाद ये सत्ता पर भी क़ाबिज़ होने लगे. सातवीं से 12 वीं सदी में गूजर कई जगह सत्ता में थे.
गुर्जर-प्रतिहार वंश की सत्ता कन्नौज से लेकर बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात तक फैली थी.
मिहिरभोज को गुर्जर-प्रतिहार वंश का बड़ा शासक माना जाता है और इनकी लड़ाई बिहार के पाल वंश और महाराष्ट्र के राष्ट्रकूट शासकों से होती रहती थी.
12वीं सदी के बाद प्रतिहार वंश का पतन होना शुरू हुआ और ये कई हिस्सों में बँट गए.
गूजर समुदाय से अलग हुए सोलंकी, प्रतिहार और तोमर जातियाँ प्रभावशाली हो गईं और राजपूतों के साथ मिलने लगीं.
अन्य गूजर कबीलों में बदलने लगे और उन्होंने खेती और पशुपालन का काम अपनाया.
ये गूजर राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर जैसे राज्यों में फैले हुए हैं। भारत में गूजर जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली और हरियाणा में भी है.
हिमाचल और जम्मू कश्मीर में जहां गूजरों को अनुसूचित जनजाति का दर्ज़ा दिया गया है वहीं राजस्थान में ये लोग अन्य पिछड़ा वर्ग में आते हैं.
- समाजशास्त्रियों के अनुसार हिंदू वर्ण व्यवस्था में इन्हें क्षत्रिय वर्ग में रखा जा सकता है लेकिन जाति के आधार पर ये राजपूतों से पिछड़े माने जाते हैं.
पाकिस्तान में गुजरावालां, फैसलाबाद और लाहौर के आसपास इनकी अच्छी ख़ासी संख्या है.
भारत और पाकिस्तान में गूजर समुदाय के लोग ऊँचे ओहदे पर भी पहुँच हैं. इनमें पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति फ़ज़ल इलाही चौधरी और कांग्रेस के दिवंगत नेता राजेश पायलट शामिल हैं.

धर्मांतरण

मलेशिया की शीर्ष नागरिक अदालत ने इस्लाम छोड़कर ईसाई बनी महिला की उस अपील को ख़ारिज़ कर दिया जिसमें उसके धर्मांतरण को क़ानूनी मान्यता देने की माँग की गई थी.
मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि सिर्फ़ इस्लामिक अदालत ही लीना जॉय को इस तरह का पहचान पत्र रखने की इजाजत दे सकती है जिसमें उनकी पहचान मुसलमान के रूप में न हो।

पिछले छह साल से लीना ईसाई के रूप में मान्यता पाने के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ रही हैं.
लीना का जन्म मुस्लिम परिवार में हुआ था और उनका पहला नाम अज़लिना जलानी था लेकिन 1998 में धर्मांतरण कर वह ईसाई बन गईं और अपना नाम भी बदल लिया.
शरीयत
मलेशिया की शरिया अदालत ने उनके धर्मांतरण को मान्यता देने से इनकार कर दिया था.
अब शीर्ष नागरिक अदालत ने भी साफ़ किया है कि उसे शरीयत के फ़ैसले को बदलने का अधिकार नहीं है.
हालाँकि शीर्ष अदालत का फ़ैसला एकमत से नहीं हुआ और तीन जजों की पीठ के दो मुस्लिम जज इस फ़ैसले से सहमत थे, जबकि गैर मुस्लिम जज ने इस पर असहमति जताई.
मलेशिया में मुसलमान बहुसंख्यक हैं.
- मलेशिया जैसे मुल्क मे शरिया अदालत का ये फैसला राजधर्म के खिलाफ है। जब वह किसी ग़ैर मुस्लिम को मुस्लिम बन जाने कि छूट है तो , सरकार को इस बात का भी इंतजाम करना चाहिऐ कि, जब कोई मुसलमान , किसी दुसरे धर्म को अपनाए तो उसे किसी तरह कि परेशानी ना हो। हालांकि मलेशिया अपने संविधान के मुताबिक इस्लामिक मुल्क है। लेकिन वहा जिस तरह का moderate islam लागु है , वही रहना चाहिऐ।